जर्मन रेडियो डॉयचे वेले में कुछ साल बिता चुकने के बाद लेखक-पत्रकार शिवप्रसाद जोशी वापस भारत में हैं. उनके शानदार गद्य की एकाधिक बानगियां हिन्दी की बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं में पहले भी देखी जा चुकी है. पहल में मारकेज़ पर लिखा उनका बेहतरीन पीस अब भी मेरे जेहन में ताज़ा है.
आज एक सुखद अचरज हुआ जब उन्होंने मेल कर के मुझे बदलते हुए देहरादून को केन्द्र में रखकर लिखा अपना उम्दा आलेख कबाड़ख़ाने में पोस्ट करने के लिए भेजा. उनका धन्यवाद.
देहरादूनः कायापलट के पहाड़ों से घिरी घाटी
-शिवप्रसाद जोशी
मोहंड की चढ़ाई शुरू होने से पहले और छुटमलपुर के छूटते जाने के साथ पूरब की तरफ़ का आकाश क्षितिज के पास एक हरे मटमैले रंग से सराबोर रहता है. चोटियां दिखने लगती हैं. ये शिवालिक की पहाड़ी है. और ऐसे लगता है कि सड़क सीधा पहाड़ के उन तिकोनों और उन गोलाइयों पर जाकर ही ख़त्म होगी.
देहरादून इस रास्ते से एक पहाड़ दिखता है. और जब आप और अंदर दाख़िल होते रहते हैं तब आप पाते हैं कि पहाड़ तो इसकी दीवारें हैं. और पहाड़ों के बीच एक फैलाव है. ग्रीक समाज के स्टेडियमों की तरह.
मोहंड से ही राजाजी नेशनल पार्क शुरू होता है. राजमार्ग पर बंदरों की आमद से भी अब आप ये जान सकते हैं. दूर दूर तक फैला हुआ जंगल, कुछ झोपड़ियां, गुर्जरों के दस्ते और जंगल को चीरती हुई एक लकीर जो एक नदी है सूखी हुई, पत्थरों और रेत से भरी हुई.
देहरादून अपनी शुरुआत में एक रोमान जगाता है. कुछ इस तरह से कि शहर में कुछ ख़ास है और जंगल के इस सन्नाटे की पढ़ाई में देहरादून झिलमिलाता रहता है. लेकिन एक सुरंग पार करने के बाद और एक वन चौकी के बाद देहरादून में दाख़िल होते ही आप एक विशाल बाज़ार में आने लगते हैं. जिसकी शुरुआत में आलीशान कारों के शोरूम और वर्कशॉप हैं. ये नया देहरादून है. जब तक आप देहरादून में नहीं दाख़िल हुए, पुराना देहरादून महसूस होता रहा और शहर में आते ही आप एक बदला हुआ शहर देखते हैं.
ये अब महात्माओं और मज़दूरों और फक्कड़ों का डेरा नहीं ये एक रौनकदार डेरा है, बाज़ार से घिरी हुई एक घाटी जहां आपको कार से लेकर कारतूस तक सब मिल सकता है. 2010 में देहरादून आख़िर अपनी किस छवि के साथ हमारे सामने हैं.
वह एक शहर कम एक ट्रेनिंग कैंपस ज़्यादा लगता है. एक विशाल फ़ैक्ट्री का कैंपस. उपभोक्तावाद की एक प्रयोगशाला, दूसरी ऐसी प्रयोगशालाओं से इस माने में अलग कि एक घाटी का रोमान एक पहाड़ की गंध यहां से निकली नहीं है.
देहरादून का मसूरी को जाता रास्ता एक कुदरती ऊंचाई की ओर धीरे धीरे चढ़ता हुआ सफ़र था. अब ये ऊंचाई अट्टालिकाओं और नई रौनकों और बेशकीमती मॉल्स और उनमें रखे सामान की है. इस ऊंचाई से जा चिपकने से इंकार करती हुई, छिटकी हुई कुछ चीज़ें, दूकानें, मैदान, पार्क और लोग हैं जो गनीमत है दिख जाते हैं और देहरादून की इस तरक्की के उदास कोनों की तरह वहीं जमा हैं.
एक इमारत एक साथ इतनी सारी दूकानों और लोगों और सामान का बोझ उठाए हुए धूप और बारिश और ठंड झेल रही है न जाने कब से कि ढह पड़ेगी. लेकिन वह गिरती नहीं है. एक दूकान छोटी सी है और उसमें इतनी चीज़ें ठूंस दी गई हैं कि ऐसा लगता है कि सब कुछ भरभराकर गिर जाएगा, लेकिन नहीं गिरता. एक दूकान किताब की है और उसकी भव्यताएं बढ़ गई हैं. एक जगह किताब के आगे कॉफ़ी आ गई है. एक दूकान कपड़ों की है वो कई दूकानों में बदल चुकी है. एक खाली मैदान अब खचाखच भरा मॉल है. खादी ग्रामोद्योग के साथ फ़ैब इंडिया आ गया है और पल्टन बाज़ार के साथ एक नए बाज़ार की श्रृंखला आ गई है, लेकिन एक पुरानी मज़बूत लड़ी की तरह पल्टन बाज़ार दमकता रहता है. पेड़ों से ज़्यादा होर्डिंग दिखते हैं और बैनर. दस साल की अस्थायी राजधानी देहरादून के कायापलट का ये एक दशक समझने लायक है.
देहरादून में एक साथ इतना कुछ पुराना और एक साथ इतना कुछ नया इकट्ठा है कि आप लाख नाक भौं सिकोड़ लें फिर भी नहीं सकते कि देहरादून अब वो नहीं रहा जो था.
एक शहर की इससे बड़ी करामात क्या हो सकती है कि वो अपना पुराना जादू आपके ज़ेहन से टूटने बिसरने नहीं देता. इमारतों, हूटरों, होर्डिगों और वाहनों के बीच से आप देहरादून की किसी सड़क पर हैं और चाय की एक छोटी सी दूकान की तलाश कर रहे हैं.
चाय की तलब उस दूकान की तलाश और दूकान पर चाय पीने का रोमांच नहीं टूटा है.
सुबह के वक्त आप घंटाघर से राजपुर की तरफ़ ड्राइव करते जाएं तो आप असली देहरादून को महसूस कर लेंगे. वो किसी दुर्लभ परिंदे की तरह है वहीं लेकिन दिखता नहीं. और कुछ ख़ास मौक़ों पर ही देखा जा सकता है. आप रात में उसे देख सकते हैं जब होटलो पबों और दफ़्तरों में पूरी बहक बह जाती है और तमाम षडयंत्रों की सांसें फूल जाती है और वे ध्वस्त हो जाते हैं, फ़ाइलों की धूल उड़कर सिस्टम पर बैठ जाती है, साइरन हूटर और समस्त सत्ता गड़गड़ाहटें, खर्राटों में बदल जाती हैं, तब देहरादून रात की हवाओं में पतंग की तरह उड़ता सरसराता हुआ आता है. आप बचे खुचे पेड़ों मकानों और दुमंज़िला इमारतों और पार्कों और चारदीवारियों में उसे महसूस कर सकते हैं.
देहरादून अपने ही कायापलट के पहाड़ के नीचे एक सांस है, विकास की हर दिन ऊंचा उठती महानताओं से घिरी हुई एक छोटी सी इच्छा, वो बेशक एक घाटी है लेकिन उसके इर्दगिर्द लहराते पहाड़ के पर्दे जगह जगह से फट रहे हैं. देहरादून अब संपन्न विविधताओं और चमकती विचित्रताओं से भरी हुई एक खाली घाटी है जिसमें आप स्मृतियों की तलाश में निकलते हैं.
कभी बीटल्स ग्रुप के जॉर्ज हैरीसन ने देहरादून पर गीत रचा और गिटार पर गाया था.
उस दून गीत को दुनिया ने कबाड़खाना के ज़रिए सुना. देहरादून को जानने की एक खिड़की उसी गीत से खुलती है. कबाड़खाना में आप उसे फिर से खोल सकते हैं.
4 comments:
आह देहरादून....!
घंटाघर चौक की ये तस्वीर कितनी ही यादें ताजा कर गयीं और फिर शिव जी के अनूठे शब्द-चित्रों का तो कहना ही क्या।
पहले भारतीय सैन्य अकादमीं में एक साल का प्रशिक्षण और अभी दो साल पहले वापस उसी में पोस्टिंग के दौरान देहरादून के चप्पे-चप्पे को छान मारा था। राजपुर रोड से होते हुये मसूरी की ऊँचाइयों को अपने साथी सैन्य-अधिकारियों संग बुलेट मोटरसायकिल की असंख्य यात्रा कभी न भूला पाऊंगा।
शुक्रिया इस पोस्ट के लिये....
उम्दा पोस्ट.
सुबह के वक्त आप घंटाघर से राजपुर की तरफ़ ड्राइव करते जाएं तो आप असली देहरादून को महसूस कर लेंगे
मैं देहरादून में करीब दो साल रहा। पिं्रस चौक के पास ही रहता था। अक्सर शाम को घंटा घर जाता था पर अफसोस की सुबह घंटा घर से राजपुर की ओर कभी नहीं जा सका। अब क्या किया जाए। फिर से देहरादून जाऊं क्या।
हरजीत का एक शे’र है
नदी सूखे या बह निकले
मुहाना गुम नहीं होता
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