अभी दो-एक दिन पहले ही हिंदी दिवस आया-गया है. हिंदी दिवस पर मेरे दफ्तर में बहुत सार्थक बहस हुई. एक मराठी सहकर्मी को लंच के दौरान टीवी पर हिंदी-दिवस के मुत्तालिक ख़बर दिखाई दी. उन्होंने कहा हिंदी पखवाड़ा शुरू हो गया है. एक मलयाली सहकर्मी ने बड़े भोलेपन से पूछा, "हिंदी पखवाड़ा क्या होता है?" मराठी सहकर्मी ने गंभीरता से उत्तर दिया, "पखवाड़ा मीन्स डे. सो हिंदी पखवाड़ा मीन्स हिंदी-दिवस". मलयाली सहकर्मी बोले, "शुरू हो गया बोले तो क्या मतलब? अभी तो आधा ख़तम हो गया रहेगा."
यह बात मेरे व्यस्त भेजे से भी उतर गयी. आज यूं ही चरते हुए रघुवीर सहाय जी की कविताओं तक पहुँच गया और हिंदी पर यह कविता भी फिर दिख गयी. आप भी देखिये...
हमारी हिंदी एक दुहाजू की नयी बीबी है
बहुत बोलनेवाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली
गहने गढ़ाते जाओ
सर पर चढ़ाते जाओ
वह मुटाती जाये
पसीने से गंधाती जाये घर का माल मैके पहुंचाती जाये
पड़ोसिनों से जले
कचरा फेंकने को लेकर लड़े
घर से तो ख़ैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता
औरतों को जो चाहिए घर ही में है
एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी
एक नागिन की स्टोरी बमय गाने
और एक खारी बावली में छपा कोकशास्त्र
एक खूसट महरिन है परपंच के लिए
एक अधेड़ खसम है जिसके प्राण अकच्छ किये जा सकें
एक गुचकुलिया-सा आँगन कई कमरे कुठरिया एक के अन्दर एक
बिस्तरों पर चीकट तकिये कुर्सियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े
फर्श पर ढँनगते गिलास
खूँटियों पर कुचैली चादरें जो कुँए पर ले जाकर फींची जायेंगी
घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए
सीलन भी और अन्दर की कोठरी में पाँच सेर सोना भी
और सन्तान भी जिसका जिगर बढ़ गया है
जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है
और ज़मीन भी जिस पर हिन्दी भवन बनेगा
कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिन्दी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पह्ले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे।
7 comments:
रघुवीर सहाय का जवाब नहीं…गंभीर विषय और पापुलर हो सकने वाली भाषा और शिल्प का अद्भुत कम्बिनेशन!
सटायर है ......मर्द की जात पे !
दिलचस्प पोस्ट महेन। और कविता तो बढ़िया है ही।
माफ़ कीजिये, मुझे तो यह बेहूदा कविता लगी।
अशोक जी हिन्दी दिवस के मौके पर यह परमेन्द्र जी के ब्लाग काव्य मंजूषा पर भी थी। वहां मैंने एक टिप्पणी की थी उसे दुहरा रहा हूं।
रघुवीर सहाय की यह कविता मैं समझता हूं कम से कम चालीस साल पुरानी है। निश्चित ही यह हमारी हिन्दी की दशा का बयान करती है। पर मुझे यह भी लगता है कि आज रघुवीर सहाय होते तो कम से कम स्त्रियों के बारे में इस तरह नहीं लिखते,शायद।
इतना तो तय है कि उन्हें हिन्दी कविता को एक नया मुहावरा दिया था।
बहुत ही खरा आकलन!
kuch samajh aayaa kuch nahi.par hindi se baat chalee bhaartiya suhagano tak pahuchee,tulnaa ke kuch bhaag pakad me aaye kuch budhdhi kee seemaa ke paar nikal gaye.
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