कवि हरिश्चन्द्र पाण्डे जी से कबाड़ख़ाना के पाठक भली भांति परिचित हैं. उनकी एक कविता प्रस्तुत है :
किसान और आत्महत्या
उन्हें धर्मगुरुओं ने बताया था प्रवचनों में
आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
तब भी उन्होंने आत्महत्या की
क्या नर्क से भी बदतर हो गई थी उनकी खेती
वे क्यों करते आत्महत्या
जीवन उनके लिए उसी तरह काम्य था
जिस तरह मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
लोकाचार उनमें सदानीरा नदियों की तरह
प्रवहमान थे
उन्हीं के हलों के फाल से संस्कृति की लकीरें
खिंची चली आई थीं
उनका आत्म तो कपास की तरह उजार था
वे क्यों करते आत्महत्या
वे तो आत्मा को ही शरीर पर वसन की तरह
बरतते थे
वे कड़ें थे फुनगियाँ नहीं
अन्नदाता थे, बिचौलिये नहीं
उनके नंगे पैरों के तलुवों को धरती अपनी संरक्षित
ऊर्जा से थपथपाती थी
उनके खेतों के नाक-नक्श उनके बच्चों की तरह थे
वो पितरों का ऋण तारने के लिए
भाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गए
वो आरुणि के शरीर को ही मेंड़ बना लेते थे
मिट्टी का
जीवन-द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए
कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना
और दुर्नीति को नीति।
(फ़ोटो http://thewordforworldisforest.wordpress.com/ से साभार)
3 comments:
सत्य !
इस नीति में वैल्थ ही काम्य है, हैल्थ अप्रासंगिक है।
यह दुर्नीति पहले किसान को अपना अंग बनाती है।
फिर अन्नदाता पूरे समाज को स्लो-पॉइज़न बाँटता है। नीति से उपजा अधिक से अधिक कमाने का लोभ ही उसे आत्महत्या तक ले जाता है। किसान के माध्यम से दिये गये स्लो-पॉइज़न से हुई हत्यायें तो नोटिस में भी नहीं आ पाती हैं, उन्हें तो आत्महत्या भी नहीं स्वाभाविक मौत ही माना जाता है।
स्थिति दयनीय है, नर्क से भी गयी गुज़री।
वो पितरों का ऋण तारने के लिए
भाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गए
वो आरुणि के शरीर को ही मेंड़ बना लेते थे
मिट्टी का
जीवन-द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए
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