भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कालजयी नाटक अन्धेर नगरी की शुरुआत में लिखी गई हैं ये पंक्तियां
छेदश्चंदनचूतचम्पकवने रक्षा करोरद्रुमेः
हिंसा हंसमयूरकोकिलकुले काकेषुलीलारतिः।
मातंगेन खरक्रयः समतुला कर्पूरकार्पासयोः।
एषा यत्र विचारणा गुणिगणे देशाय तस्मैनमः।।
[जो चन्दन, आम तथा चम्पा-वन को काटकर कीकर के वृक्ष की रक्षा करता है, जो हंस, मोर और कोयल के प्रति हिंसक होकर काक-लीला में रुचि लेता है, जो हाथी के बदले गधा खरीदता है और कपूर एवं कपास को एक-सा मानता है, जहाँ के ‘गुणीजन’ ऐसे ही विचार रखते हों, उस देश को हमारा नमस्कार है।]
5 comments:
इसमें इतना और जोड़ लीजिए कि ऐसा चंदन जिसमें भुंजग भी लिपटे हैं और यह उन भुजंगों से विषाक्त भी हो रहा है। हाथियों को भी गधे के भाव खरीदता है।
मेरा भी नमस्कार है।
संस्कृत में ऐसी-ऐसी बातें मिलेंगी कि क्या कहिये ! एक समय ऐसा ही था ये देश .अब तो न्यूक्लियर पावर है!! कायदा इसके पड़ोस में है और करीना हर जवान-पट्ठे के दिल में !!! रही कानून की तो वेद प्रकाश काम्बोज की लेटेस्ट बेस्ट सेलर है --'मैं हूँ कानून का बाप"!!!!
it needs to be recited aloud to get the true 'feel'.
gazab likha hai.. sachmuch hamara bhi namaskaar!! :-)
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