Saturday, November 6, 2010

उस देश को हमारा नमस्कार है

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कालजयी नाटक अन्धेर नगरी की शुरुआत में लिखी गई हैं ये पंक्तियां


छेदश्चंदनचूतचम्पकवने रक्षा करोरद्रुमेः
हिंसा हंसमयूरकोकिलकुले काकेषुलीलारतिः।
मातंगेन खरक्रयः समतुला कर्पूरकार्पासयोः।
एषा यत्र विचारणा गुणिगणे देशाय तस्मैनमः।।

[जो चन्दन, आम तथा चम्पा-वन को काटकर कीकर के वृक्ष की रक्षा करता है, जो हंस, मोर और कोयल के प्रति हिंसक होकर काक-लीला में रुचि लेता है, जो हाथी के बदले गधा खरीदता है और कपूर एवं कपास को एक-सा मानता है, जहाँ के ‘गुणीजन’ ऐसे ही विचार रखते हों, उस देश को हमारा नमस्कार है।]

5 comments:

राजेश उत्‍साही said...

इसमें इतना और जोड़ लीजिए कि ऐसा चंदन जिसमें भुंजग भी लिपटे हैं और यह उन भुजंगों से विषाक्‍त भी हो रहा है। हाथियों को भी गधे के भाव खरीदता है।

प्रवीण पाण्डेय said...

मेरा भी नमस्कार है।

मुनीश ( munish ) said...

संस्कृत में ऐसी-ऐसी बातें मिलेंगी कि क्या कहिये ! एक समय ऐसा ही था ये देश .अब तो न्यूक्लियर पावर है!! कायदा इसके पड़ोस में है और करीना हर जवान-पट्ठे के दिल में !!! रही कानून की तो वेद प्रकाश काम्बोज की लेटेस्ट बेस्ट सेलर है --'मैं हूँ कानून का बाप"!!!!

मुनीश ( munish ) said...

it needs to be recited aloud to get the true 'feel'.

Nisha said...

gazab likha hai.. sachmuch hamara bhi namaskaar!! :-)