यह कविता आज नैट पर इत्तेफाकन कवि निरंजन श्रोत्रिय से हुई मुलाक़ात के बाढ़ यहाँ लग रही है. निरंजन श्रोत्रिय का पहला संग्रह २००२ में छाप कर आया था जहाँ से जन्म लेते हैं पंख. उनका दूसरा संकलन जुगलबंदी २००८ में आया. उन की कविताओं के बारे में एक लम्बी पोस्ट जल्दी लगाऊंगा. फिलहाल उनकी यह ताज़ा कविता पढ़िए.
भरोसा नहीं होता लेकिन यह सच है
वह कभी कह नहीं पाई अपनी माँ से
न जाने क्यों
अपनी सग़ी बहन से भी
लेकिन शादी के बाद उसने साझा किया
इसे अपनी ननद से
कोई गायनी प्राब्लम थी उसे!
देवर उसका नाम सुनील
अपनी भाभी के लिए दरअसल एजेंट सुनील
समस्या कोई भी सुलटा सकता पलक झपकते
एक दिन जब उसे अपने एकांत में फफक कर रोना था
वह रोई अपने ससुर के सीने में मुँह छुपाकर
अरे....जो निकले उसके पिता ही
रोई इतना कि भींग गया कुरता उनका
और अंत में जिसे भारतीय परंपरा में
'सास' कहते हैं
मुट्ठी में भींचते हुए एक पत्र समझाया उसे...
'बेटी...बचपन में हो जाती है ऐसी नादानी
पूरा जीवन पड़ा है सामने...!'
इस तरह एक औरत
इस इक्कीसवीं सदी में
आत्महत्या करने से बच गई
यह सब उसके पति तक को पता नहीं था
कथित ससुराल वालों का मानना था
--इसकी ज़रूरत भी नहीं है!
5 comments:
wah,vishwas jagaati kavita.
निरंजन जी की यह कविता एक अलग फलक की कविता है... सुन्दर !
... sundar rachanaa ... shaandaar prastuti !!!
जीवन जीने के लिये है, स्वच्छन्द, तो उसके बोझ तले दब कर क्यों जिया जाये।
ये एक सुंदर कविता ही नहीं बल्कि सुखद बदलाव का संकेत है अगर ऐसा हो तो इससे बेहतर और कुछ नहीं। बहुत सुंदर...
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