Wednesday, December 8, 2010

आधी रात को फरिश्ते आकर कविताएं सुना जाते हैं



कल आधी रात को एक फरिश्ता आया. मुझे ढेर सारी कविताएं सुना गया. अभी इस वक़्त बहुत कुछ तो भूल भाल चुका हूँ, ... जो मुझे याद रह गईं हैं, बल्कि परेशान भी कर रही है उन में से एक है महमूद दरवेश की “इतिहास को कविता तरह की मत लिखो”. उस के बाद उस ने आलोक धन्वा की “सफेद रात “ , “गोली दागो पोस्टर”, और “भागी हुई लड़कियाँ” सुनाई. उस ने कहा ‘अजेय भाई मैं शर्मिन्दा हूँ कि आप ने अभी तक आलोक धन्वा को नहीं पढ़ा’ फिर उसने वीरेन डंगवाल की कविताएं सुनाई. शीर्षक याद नहीं रख सका लेकिन वह नदी किनारे का रेतीला लोकेल याद रह गया जहाँ खीरे, लौकियाँ, तरबूज उगाए जाते हैं ... कटरी शायद. हाँ ऐसा ही कुछ था ... जहाँ कच्ची हरियाली के बीच एक लड़्की भी उग रही थी. फिर उस ने अपनी अद्भुत प्रेम कविताएं सुनाई. प्रेम तो आदमी का भी नायाब होता है; फिर एक फरिश्ते का प्रेम कैसा हो सकता है, आप अन्दाज़ा लगा सकते हैं. उस ने कहा था कि “ मैं इस ऊबड़ खाबड जगह पर तुम्हारे लिए अपनी बाहों का तम्बू तानना चाहता हूँ.”

... मैं जो अभी तक खुद की एक भी प्रेम कविता नहीं लिख सका हूँ, स्तब्ध हो कर उस की कविताएं सुनता रहा. साथ में हम दारू खींच रहे थे.... उस के पास अपनी जॉनी वाकर या सिगल माल्ट जैसी कोई नफीस चीज़ थी. मैं अपनी दारचा वाली दोस्त की भेजी हुई जौ की देसी से काम चला रहा था. हल्के खुमार में हम ने बहुत सी बातें कीं. घर परिवार और तमाम चीज़ें. उस की तेरह वर्षीय बेटी है. पियानो बजाती है. परसों रोम में उस का कंसर्ट है ... वह उमर में मुझ से छोटा निकला. कहने लगा अरे यार तुम तो मेरे दद्दा हो ! मैं सच मुच खुद को अभागा समझ रहा था कि खुद को हिन्दी कवि समझता हूँ और अभी तक आलोक धन्वा और वीरेन डंगवाल को ठीक से नहीं पढ़ा है. खैर , अभी सुबह सुबह अपनी खुशक़िसमती पर इतरा रहा हूँ कि आलोक धन्वा और वीरेन डंगवाल को मैं ने एक फरिश्ते के मुँह से सुना ... लव यू दोस्त!

तुम इसी तरह आते रहना , बे खटके, किसी भी वक़्त. मुझे बड़ी कविताएं सुनाते रहना ... बल्कि बहुत सम्भव है कि तुम्हारे पाठ ने ही उन कविताओं को एक अलग उड़ान दी हो ... बस इसी मनःस्थिति में अपनी तीन दिन पहले लिखी अप्रकाशित कविता कबाड़ खाने पर अपनी पहली पोस्ट के रूप मे सादर लगा रहा हूँ.

ट्रंक मे स्वर्ग वासी माँ की चोलू –बास्कट देख कर

तुम्हारी जेबों मे टटोलने हैं मुझे
दुनिया के तमाम खज़ाने
सूखी हुई खुबानियां
भुने हुए जौ के दाने
काठ की एक चपटी कंघी और सीप की फुलियां
सूँघ सकता हूँ गन्ध एक सस्ते साबुन की
आज भी
मैं तुम्हारी छाती से चिपका
तुम्हारी देह को तापता एक छोटा बच्चा हूँ माँ
मुझे जल्दी से बड़ा हो जाने दे

मुझे कहना है धन्यवाद
एक दुबली लड़की की कातर आँखों को
मूँगफलियां छीलती गिलहरी की नन्ही पिलपिली उंगलियों को चूमना है

दो दो हाथ करने हैं मुझे नदी की एक वनैली लहर से
आँख से आँख मिलानी है हवा के एक शैतान झौंके से

मुझे तुम्हारी सब से भीतर वाली जेब से चुराना है
एक दहकता सूरज
और भाग कर गुम हो जाना है
तुम्हारी अँधेरी दुनिया में एक फरिश्ते की तरह
जहाँ औँधे मुँह बेसुध पड़ीं हैं
तुम्हारी अनगिनत सखियाँ
मेरे बेशुमार दोस्त खड़े हैं हाथ फैलाए

कोई खबर नहीं जिनको
कि कौन सा पहर अभी चल रहा है
और कौन गुज़र गया है अभी अभी
कि कैसी घड़ी आगे खड़ी है मुँह बाएँ ...

सौंपना है माँ
उन्हें उनका अपना सपना
लौटाना है उन्हें उनकी गुलाबी अमानत
सहेज कर रखा हुआ है
जो तुम ने बड़ी हिफाज़त से
अपनी सब से भीतर वाली जेब में !

(सुमनम 05.12.2010)

19 comments:

कडुवासच said...

... sundar ... bhaavpoorn rachanaa !!!

sanjay vyas said...

फ़रिश्ते से हुई मुलाक़ात को अब तक मैंने एक दुनियावी अनुभव की तरह बनाए रखा था... किसी तरह...जानता हूँ सबसे भीतरी जेब मैं रखे जाने वाले परम अमूल्य की तरह संजोने जैसा है ये अनुभव.
और आपकी कबाड़खाने पर आपकी पहली पोस्ट भी अजेय जी.

Prakash Badal said...

बहुत दिनों बात एक नई कविता सुनी और वो भी कबाड़खाने में। ये कबाड़खाना है ही कमाल, यहाँ जितना भी कबाड़ है वो ख़ुश्बूदार है। आपकी कविताएँ और कबाड़खाने की खुश्बूएँ आबाद रहे।

Neeraj said...

खूबसूरत अहसास पिरोया है आपने |

प्रदीप जिलवाने said...

उम्‍दा

सुनीता said...

बहुत सुंदर अजेय भैया ,,,
सबसे भीतर के जेब में से चुरा लाना सूरज कि थोड़ी सी किरणे हमारे लिय भी ,,,
इस कविता को पढ़ कर ऐसा लगा जिसे अंदर से कुछ दरक रहा हैं ,, शायद मेरे अंदर का पहाड़ ,, बहुत सुंदर अजेय भैया ,,,

सुनीता said...

बहुत सुंदर एहसासों से पिरोई कविता ,,,
माँ कि सबसे से भीतर वाली जेब से चुरा लाना कुछ रौशनी कि किरणे हमारे लिए भी ,,
ऐसा लगा कुछ दरक रहा है अंदर ,, शायद मेरे अंदर का पहाड़ ,,
हम तो ताउम्र बाहर कि जेब टटोलने में ही बिता दी ,,

राजेश उत्‍साही said...

मां के बहाने स्त्री केन्द्रित भावपूर्ण कविता।

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत सुन्दर रचना।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत भावपूर्ण कविता ..और भूमिका तो और भी उम्दा ..

Pratibha Katiyar said...

wah!

अपर्णा said...

पहले भीतरतम जेब से सूरज चुराना -
मुझे तुम्हारी सब से भीतर वाली जेब से चुराना है
एक दहकता सूरज
और भाग कर गुम हो जाना है
तुम्हारी अँधेरी दुनिया में एक फरिश्ते की तरह
फिर ये कहना -
सौंपना है माँ
उन्हें उनका अपना सपना
लौटाना है उन्हें उनकी गुलाबी अमानत
सहेज कर रखा हुआ है
जो तुम ने बड़ी हिफाज़त से
अपनी सब से भीतर वाली जेब में !
मन को छू गयी कविता ...

vandana gupta said...

बेहद भावप्रवण रचना।

nature7speaks.blogspot.com said...

Achhi Prastuti

http://nature7speaks.blogspot.com/

नवनीत पाण्डे said...

कोई खबर नहीं जिनको
कि कौन सा पहर अभी चल रहा है
और कौन गुज़र गया है अभी अभी
कि कैसी घड़ी आगे खड़ी है मुँह बाएँ ...

वाह! वीरेंद्र जी कबाड में कितनी अमूल्य अभिव्यक्ति रख छोडी है आपने

नवनीत पाण्डे said...

कोई खबर नहीं जिनको
कि कौन सा पहर अभी चल रहा है
और कौन गुज़र गया है अभी अभी
कि कैसी घड़ी आगे खड़ी है मुँह बाएँ ...

वाह! वीरेन जी! कबाड में कितनी अमूल्य अभिव्यक्ति रख छोडी है आपने...

संगीता said...

बेहतरीन
काश इन जेबों तक पहुचना थोडा आसान होता..

अजेय said...

आप सब तक पहुँची बात , मैं खुश हूँ.ज़िन्दगी में दो चीज़ें मुझ से चिपक कर रह गई हैं-- माँ , और गाँव .

# संगीता ,
आसान तो तो यहाँ कुछ भी नही है. पर कोशिश् की ही जानी चाहिये.

अनुपमा पाठक said...

bahut sundar...!!!