Saturday, December 18, 2010

पीछे छूटती दुनिया का सम्हाल कर रखा गया नितांत अपना सा कुछ

कुछ दिन पहले मैंने आपको डॉ. आईदान सिंह भाटी की एक कविता से रूबरू करवाया था. आज फिर संग्रह 'आँख हियै रा हरियल सपना' से उनकी एक और कविता यहाँ लगा रहा हूँ.पहले मूल राजस्थानी में आस्वाद लें,उसके बाद मेरा अनुवाद भी देखें.

बु्गचौ

मां राखती बुगचै नै
घणै जतन सूं.
उण मांय हा उणरा वै गाभा
जिका नानी रै हाथां रा सीड़ीज्‍योड़ा हा.
बुगचै मांय
दूजी ई घणी चीजां ही.
मां जोवती अर
परस, पळट'र
पाछा राख देवती जतन सूं.
संभाळ संभाळ'र देखती
वा आंगळियां सूं.
म्‍है टाबर जोवता हा
मां री आंगळियां रै बिच्‍चै
रळकती वां चीजां नै टुगर टुगर.
बुगचौ रैयौ व्‍हैला कदैई रंग रंगीलौ
मां री इंछावां री गळाई.
हवळै हवळै इण रा रंग
मगसा पड़ताग्‍या
अर मगसी पड़तीगी मां री
इंछावां.

लुगाई री इंछावां ईज तौ व्‍है सपना.

छोटी छोटी चावनावां.
ज्‍यूं चिड़कलियां चु्गै दाणां
वां ई चुगती मगसै रंगां माय सूं
चटक रंग रा दाणा.
बदळाव बुगचै नै
औरूं घणौ कर दियौ मगसौ
ऊधड़गी ही उणरी सींवणां
पण फूठरी सांतरी संदूकडि़यां रै
मां कदैई नी लगायो हाथ
नी कीनी हर कदैई पेटी री
भलांई कितरी ई फूठरी लागती दुनिया नै.
बुगचौ कोरो नी हो कापड़ौ
उण रै मांय ही मां री
पीहर री 'बाखळ'
बाळपणै रा हंसणा रूसणा
साथणियां रा सपना-
'भोळै खरगोसियै ज्‍यूं
फुदक फुदक कूदता
सेवण घास मांय लुकता
कूदकड़ा भरता.'

जदई मां नै चुगणा व्‍हैता दांणा
ओळूं रा
वा खोल र बुगचौ
जोवती आंगळियां सूं पंपोळ र
'दो जांड़ी गाभा'
'काजळ रौ कूंपळौ'
'चांदी रौ हथफूल'
अर तीन जोड़ी बींटियां.'
वा भूल जावती उण बगत
ढोळै पडि़योड़ी गोरकी गाय
पांणी अर पळींडौ
उतरता घर रा लेवड़ा
अर काळ री झाळ
रमजावती वा ओळूं रै आंगणियै.
बुगचै रा रंग कैड़ा दीसता
कोई उण बगत पूछतौ मां नै.


बुगचौ

(कपड़े का काफी बड़ा थैला, जिसके आकार का अंदाज़ यूँ लगा सकते हैं कि इसे यात्राओं के दौरान ऊँट पर इस तरह व्यवस्थित किया जा सकता था जिससे ये उसकी पीठ के दोनो ओर लटकता रहता था)


माँ रखती बुगचे को
खूब जतन से.
उसमें थे उसके वे वस्त्र
जिन्हें कभी नानी ने अपने
हाथों से सिले थे.
बुगचे में और भी कई चीज़ें थीं.
माँ देखती जिन्हें
और छू-पलट कर धर देती
वापस सम्हाल कर.
सावधानी पूर्वक वो देखती
अपनी उँगलियों से
और हम बच्चे
देखते टुकुर टुकुर
उन तमाम चीज़ों को फिसलते
माँ की उँगलियों से.
रहा होगा कभी ये
वृहदाकार थैला
बहुत रंग रंगीला
माँ की इच्छाओं सदृश,
धीरे धीरे
फीके पड़ते गए इसके रंग
और फीकी पड़ती गयीं
माँ की इच्छाएँ भी.

स्त्री की इच्छाएं ही तो होते हैं सपने.

छोटी छोटी चाहनाएं.
जैसे चिडियाएँ चुगती हैं दाने
माँ भी चुनती फीके रंगों से
दाने चटक रंगों के.
भले ही
सब कुछ जो इतना बदला
उसने कर दिया था बुगचे को
और फीका
उधड़ गयी थी उसकी सिलाई
पर दूसरी खूब सजी- संवरी, दुरुस्त संदूकों को
माँ देखती तक नहीं.
न ही कभी ध्यान रखा बक्से का
चाहे कितना ही मोहता रहे दुनियां को.
बुगचा नहीं था केवल कोई कपड़ा मात्र
उसमें था थोडा सा माँ का पीहर
बचपन का हंसना रूठना
सहेलियों के सपने-
'अबोध खरगोश ज्यूं फुदकते
सेवण घास में छिपते, चौकड़ी भरते.'

जब भी माँ को चुनने होते दाने
स्मृतियों के
वो खोलकर बुगचा
देखती उँगलियों से टटोलकर
'दो जोड़ी वस्त्र'
काजल की डिबिया'
चांदी का हस्तफूल'
और तीन जोड़ी अंगूठियां'
भूल जाती वो उस समय
'मरणासन्न गोरी गाय,
पानी और मटकी का स्थान
घर का उधड़ता प्लास्टर
और अकाल की भयावह ज्वाला.
वो तो
मगन होती
अपनी यादों के आँगन में .
बुगचे के रंग कैसे दिखते है
कोई उस वक्त पूछता माँ से.

5 comments:

Neeraj said...

स्त्री की इच्छाएं ही तो होते हैं सपने |
जियो गुरु !!!
तार झंकृत कर गए |

अभी अजेय जी ने भी माँ पर इसी मूड की एक कविता 'ट्रंक मे स्वर्ग वासी माँ की चोलू –बास्कट देख कर ' लिखी थी |

कडुवासच said...

... sundar rachanaa ... shaandaar post !!!

के सी said...

राजस्थान के प्रतिनिधि कवि हैं भाटी जी. किराडू वाली और ये कविता दोनों ही सशक्त हैं. कवि ने जिस मर्म को उकेरा है वह अद्भुत है लेकिन मुझे इस बात की भी बेहद ख़ुशी है कि आपने अनुवाद कमाल का किया है. भाटी जी के लोक जीवन की गहरी समझ की झलक इन कविताओं में मिलती है. आपका बहुत आभार

प्रवीण पाण्डेय said...

विचारणीय चिन्तन के पथ छोड़ गयी यह रचना।

अजेय said...

bhaTi ji ko kritior ke maadhyam se janata hoon. vo lok me rame hue kavi hain.

sanjay bhai, kavita ka ye thar bada oorvar hai.thaar aur pahaad ke paas tourism alaavaa bhi bahut kuchh hai. aabhaar.