लोक गीतों मे पाडर –पाँगी
हम मयाड़ नदी के दक्षिण तट पर चल रहे हैं. इस तरफ मुख्य रूप से जुनिपर के पेड़ है . उस पार वाम तट पर घारी, चिमरट, षेळिंग , बलगोट आदि गाँवों के मनोहारी दयार के जंगल देखते हुए अभी अभी हम तमलू से आगे हुए हैं. मयाड़ घाटी की जो भौगोलिक छवि मेरी कल्पना मे बनी हुई थी, धीरे धीरे ध्वस्त होती जा रही है. यह रोमाँचक तो है, लेकिन उस तरह से क़तई नहीं जो मैंने सोच रखा था. असल में यह लाहुल की अर्द्ध मरुभूमि वाले टेरैन से अलग ही एक दुनिया है. बीहड़ किंतु हरा भरा. यहाँ के नदी नाले बहुत सक्रिय हैं. भीषण गर्जना करते नालों के मुहानों पर भीमकाय बोल्डरों के ढेर बने हुए हैं. उन ढेरों में गौर से देखें तो सैंकड़ों हरे हरे कोमल सिब्लिंग्स पत्थरों की कठोरता को चुनौती देते हुए वहाँ उग रहें हैं. मैंने नोटिस किया कि ज़्यादातर गाँव भी इन मुहानों पर ही बसे हैं. बाढ़ के मलबों के ठीक ऊपर. और साफ दिखता है कि इन नालों को सक्रिय हुए बहुत अरसा नहीं हुआ है अभी. मतलब यह कि यहाँ का आदमी भी प्रकृति के विनाशकारी तत्वों से बहुत ज़्यादा नहीं डरता. सृजन और विनाश का प्राकृतिक संघर्ष यहाँ अपने चरम रूप मे दिखता है . सच कहूँ तो ऐसे रोमाँच की कभी कल्पना भी नहीं की थी मैंने.
वह स्थानीय आदमी बहुत ज़्यादा बातूनी नहीं है. वह तब तक कोई सूचना शेयर नही करता जब तक कि उसे ज़रूरी न लगे . या पूछ ही न लिया जाए. लेकिन वे स्त्रियाँ कम्युनिकेट करने के लिए बहुत उत्सुक जान पड़तीं हैं. मुझे उन की खिचड़ी भाषा बड़ी आत्मीय लग रही है. और उस में बहुत ताक़त है . छोटी लड़की उन की बातों पर बार बार हँस पड़ती है. कभी कभी एकदम असहज हो जाती है. उसे लगता है कि वे लोग ज़्याद ही भदेस हो रहीं हैं. लेकिन उन स्त्रियो को कोई परवाह नही है कि स्कूल जाने वाली लड़की क्या सोच रही है. सहगल जी बीच बीच मे किसी लोकगीत का मुखड़ा गुनगुना देते तो वे स्त्रियाँ झट से उसे पूरा कर देतीं. मर्द भी सहज भाव से साथ साथ गाने लगता...
“ देशो ता भलिये मायाड़ी देशा....”
“खबुला , हेरि शुणि जाणा खबुला....”
“सोना पोति नेड़े क दूर ए , लाल रंगा है”
“पाडेरी मुलुका बुरा ए , ज़िन्दा पड़ेर ज़िन्दा ना ए”
टेक खत्म होने पर सभी ठहाका मार कर हँस पड़ते हैं.. लडकी इस गायन मे भाग लेने से झिझक रही है. लेकिन अंतिम हँसी मे वह भी शामिल हो जा रही है.........
ये लोग अपनी संस्कृति पर सचमुच गर्व करते हैं. कम से कम गायन में उन का आत्मविश्वास देख कर मुझे यही लगा है. इन गीतों पर पाडरी, पंगवाली और गद्दी भाषा और शैली का असर है. पहाड़ी-हिन्दी के शब्द भी सहज ही शामिल हो गए हैं. बोलचाल की भाषा भोटी(मयाड़ी) और आदिम पटनी होते हुए भी लोकगीतों में आर्यभाषाओं का प्रयोग क्यों हुआ है? फिर ध्यान आता है कि हमारे पटन में भी प्राचीन गाथाओं मे इसी खिचड़ी भाषा का प्रयोग हुआ है. सहगल जी से पूछता हूँ, कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता है.
हम मयाड़ नदी के दक्षिण तट पर चल रहे हैं. इस तरफ मुख्य रूप से जुनिपर के पेड़ है . उस पार वाम तट पर घारी, चिमरट, षेळिंग , बलगोट आदि गाँवों के मनोहारी दयार के जंगल देखते हुए अभी अभी हम तमलू से आगे हुए हैं. मयाड़ घाटी की जो भौगोलिक छवि मेरी कल्पना मे बनी हुई थी, धीरे धीरे ध्वस्त होती जा रही है. यह रोमाँचक तो है, लेकिन उस तरह से क़तई नहीं जो मैंने सोच रखा था. असल में यह लाहुल की अर्द्ध मरुभूमि वाले टेरैन से अलग ही एक दुनिया है. बीहड़ किंतु हरा भरा. यहाँ के नदी नाले बहुत सक्रिय हैं. भीषण गर्जना करते नालों के मुहानों पर भीमकाय बोल्डरों के ढेर बने हुए हैं. उन ढेरों में गौर से देखें तो सैंकड़ों हरे हरे कोमल सिब्लिंग्स पत्थरों की कठोरता को चुनौती देते हुए वहाँ उग रहें हैं. मैंने नोटिस किया कि ज़्यादातर गाँव भी इन मुहानों पर ही बसे हैं. बाढ़ के मलबों के ठीक ऊपर. और साफ दिखता है कि इन नालों को सक्रिय हुए बहुत अरसा नहीं हुआ है अभी. मतलब यह कि यहाँ का आदमी भी प्रकृति के विनाशकारी तत्वों से बहुत ज़्यादा नहीं डरता. सृजन और विनाश का प्राकृतिक संघर्ष यहाँ अपने चरम रूप मे दिखता है . सच कहूँ तो ऐसे रोमाँच की कभी कल्पना भी नहीं की थी मैंने.
वह स्थानीय आदमी बहुत ज़्यादा बातूनी नहीं है. वह तब तक कोई सूचना शेयर नही करता जब तक कि उसे ज़रूरी न लगे . या पूछ ही न लिया जाए. लेकिन वे स्त्रियाँ कम्युनिकेट करने के लिए बहुत उत्सुक जान पड़तीं हैं. मुझे उन की खिचड़ी भाषा बड़ी आत्मीय लग रही है. और उस में बहुत ताक़त है . छोटी लड़की उन की बातों पर बार बार हँस पड़ती है. कभी कभी एकदम असहज हो जाती है. उसे लगता है कि वे लोग ज़्याद ही भदेस हो रहीं हैं. लेकिन उन स्त्रियो को कोई परवाह नही है कि स्कूल जाने वाली लड़की क्या सोच रही है. सहगल जी बीच बीच मे किसी लोकगीत का मुखड़ा गुनगुना देते तो वे स्त्रियाँ झट से उसे पूरा कर देतीं. मर्द भी सहज भाव से साथ साथ गाने लगता...
“ देशो ता भलिये मायाड़ी देशा....”
“खबुला , हेरि शुणि जाणा खबुला....”
“सोना पोति नेड़े क दूर ए , लाल रंगा है”
“पाडेरी मुलुका बुरा ए , ज़िन्दा पड़ेर ज़िन्दा ना ए”
टेक खत्म होने पर सभी ठहाका मार कर हँस पड़ते हैं.. लडकी इस गायन मे भाग लेने से झिझक रही है. लेकिन अंतिम हँसी मे वह भी शामिल हो जा रही है.........
ये लोग अपनी संस्कृति पर सचमुच गर्व करते हैं. कम से कम गायन में उन का आत्मविश्वास देख कर मुझे यही लगा है. इन गीतों पर पाडरी, पंगवाली और गद्दी भाषा और शैली का असर है. पहाड़ी-हिन्दी के शब्द भी सहज ही शामिल हो गए हैं. बोलचाल की भाषा भोटी(मयाड़ी) और आदिम पटनी होते हुए भी लोकगीतों में आर्यभाषाओं का प्रयोग क्यों हुआ है? फिर ध्यान आता है कि हमारे पटन में भी प्राचीन गाथाओं मे इसी खिचड़ी भाषा का प्रयोग हुआ है. सहगल जी से पूछता हूँ, कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता है.
1 comment:
दुग्ध धवल,
हिम व जल।
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