Sunday, March 13, 2011

मेरे साथ मयाड़ घाटी चलेंगे ? --7

लोट गाँव में जहाँ एक दुकान हुआ करती थी वहाँ ढाबा खुल गया है. खाकी वर्दी पहने बच्चे स्कूल जा रहे हैं. ढाबे के बरामदे में लोग ठेठ पहाड़ी अन्दाज़ में चा सुड़कते हुए इंतज़ार कर रहे हैं . गुनगुनी धूप या बॉर्डर रोड्स का ट्रक ; जो भी पहले पहुँच जाय ! ढाबे का मालिक नया नया स्कूल से छूटा हुआ छोकरा प्रतीत होता है . उस में ढेर सारी ऊर्जा है.इस ठण्ड मे एक पतला हाईनेक पहने हुए है. उस के नीचे कबाड़ वाली डाँगरी और आर्मी के सफेद स्नो बूट .गरम पारका कोट उतार कर उस ने मुँडेर पर रखा हुआ है और खुद एक ठीये पर मोमो के लिए कीमा बना रहा है. तेज़ी से चॉपर चलाते हुए वह किसी ‘सेठ’ की माँ बहन एक कर रहा है.
ज़ोरों की भूख लगी है. हम ने चाय के साथ कुछ खाने को माँगा है .
“ “खाने के लिए तो भाई जी , मोमो बन रहा है. एक घण्टा लगेगा. बिस्कुट बगैरा कुछ नहीं है. तब तक सत्तू घोलना हो तो बोलो”.” छोकरा चण्ट है.
चौहान जी की ओर देखता हूँ .....अच्छा , चाय बनाओ और थोड़ा सत्तू और चीनी दो. मैं अपने पिट्ठू में से टटोल कर ताज़ा छङ की बोतल निकालता हूँ. पहले दो घूँट हलक़ से नीचे उतार कर फिर एक सूप बाऊल में सत्तू और चीनी के साथ इसे घोल कर खुद खाता हूँ और सहगल जी को भी खिलाता हूँ. इस रेसिपी को यहाँ बक्पिणि कहते हैं. हिमालय का फास्ट फूड ..... और एक कारगर एनेर्जाईज़र भी. इसे रोह्ताँग पर बीसियों बार आज़मा चुका हूँ. भूख भी मिट जाती है और प्यास भी. केलोरीज़ अलग मिलती है. ग्लुकोज़ से भी ज़्यादा असरदार. ऊपर से हल्का सा खुमार भी चढ़ा रहता है. चौहान जी ने फिर अजीब सा मुँह बनाया है. दारू ही मिल जाती , दो पेग सट लेते... बेचारे ! चाय पीते हुए वो सिगरेट के लम्बे लम्बे कश खींच रहे हैं. खाली मोग़्टू से निकलते भाप को हसरत से तकते हुए ! और मैं पेड़ों से छन कर आती धूप को महसूसने का प्रयास कर रहा हूँ. कामयाबी नहीं मिल रही. मैं ने गौर किया कि यहाँ टहनियों मे हरापन आ चुका है लेकिन कोंपलें अभी नहीं फूटीं हैं. इस अहसास ने मुझे गरमाहट दी है कि हम गरम इलाक़े में प्रवेश कर रहे हैं.

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

सत्तू तो सभी यात्राओं का फास्ट फूड है।