भारतीय प्रेस परिषद का नया अध्यक्ष बनते ही जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने जिस तरह की सक्रियता दिखाई थी, अब धीरे-धीरे उसकी हक़ीक़त सामने आने लगी है. काटजू ने बेलगाम कॉरपोरेट मीडिया को कटघरे में खड़ा कर उसके सख़्त नियमन के लिए कई सुझाव दिए थे. इससे नाराज़ देशभर के बड़े मीडिया घरानों ने उनके ख़िलाफ़ चौतरफ़ा मोर्चा खोल लिया. आख़िरकार काटजू को आत्मरक्षा की मुद्रा में आना पड़ा और वे जल्दबाज़ी में कॉरपोरेट मीडिया को क्लीन चिट देते नज़र आने लगे हैं. इस बीच कॉरपोरेट मीडिया के आत्मनियमन के लिए हाय-तौबा मचाने वालों में अव्वल रहने वाले न्यूज़ चैनल सीएनएन-आईबीएन की सीनियर एंकर सागरिका घोष ने पत्रकारीय नैतिकता को ठेंगा दिखाकर पूर्व रिकॉर्डेड दृश्यों को एक बहस के दौरान लाइव बताकर प्रसारित कर डाला. पहले भी चैनल के मालिक और मुख्य संपादक राजदीप सरदेसाई चैनल की रेंटिग बढ़ाने और अपना एजेंडा सेट करने के लिए दर्शकों की तरफ़ से नकली मतदान करवा चुके हैं. सागरिका और राजदीप आज की भारतीय पत्रकारिता में कॉरपोरेट बेईमानी के बड़े प्रतीक बन चुके हैं, फिर क्या बात हैं कि काटजू को उनकी हरकतें दिखाई नहीं देतीं?
काटजू के करतब
सितंबर महीने में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर होने के बाद अक्टूबर महीने में ही काटजू की नियुक्ति भारतीय प्रेस परिषद के नए अध्यक्ष के तौर पर हो गई थी. काटजू ने कुछ ही दिन बाद सीएनएन-आईबीएन में करन थापर के प्रोग्राम डेविल्स एडवोकेट में इंटरव्यू देकर कॉरपोरेट किरदारों की नींद उड़ा दी. इंडियन एक्सप्रेस और द हिंदू ने भी काटजू के विचारों को प्रकाशित कर इस मुद्दे को और हवा दी. काटजू का कहना था कि आज का मीडिया ज़रूरी मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए फालतू किस्म के विषयों को ज़्यादा अहमियत दे रहा है. उन्होंने मीडिया मालिकों की तरफ़ से प्रचारित किए जा रहे स्वनियमन की अवधारणा को पूरी तरह से नकार दिया था. काटजू ने अपने विचारों में मीडिया के नियमन की वकालत की थी. इसके अलावा काटजू ने अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति मीडिया के पूर्वाग्रह को उठाकर एक तरह से मीडिया में न्यूज़रूप डायवर्सिटी न होने का मुद्दा भी उठाया था. उन्होंने ये हक़ीक़त भी बयान कर डाली कि आज के ज़्यादातर पत्रकार कम समझदार हैं. नए दौर में मीडिया सही काम करे इसके लिए उन्होंने प्रेष परिषद के दायरे में प्रिंट के साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी लाने की वकालत कर डाली.
काटजू की बातें मीडिया मालिकों और उनके मुखौटाधारी पत्रकारों को नागवार गुज़री और उन्होंने काटजू के बयानों को इस तरह पेश किया जैसे वे मीडिया के सरकारी नियंत्रण की बात कर रहे हों. मीडिया के नियमन की बात को सरकारी नियंत्रण बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बहस के तौर पर पेश किया गया. कई टेलीवीजन चैनलों और अख़बारों ने इस विषय पर प्रायोजित बहस चलाई. जिसमें ज़्यादातर कॉरपोरेट मीडिया के एजेंडा के हिसाब से बात करने वाले चुने हुए बुद्धिजीवियों को ही बुलाया गया. आख़िरकार काटजू पर बनाया गया दबाव काम आया और काटजू बचाव की मुद्रा में नज़र आने लगे. उन्हें द हिंदू में एक लेख लिखकर सफ़ाई देनी पड़ी कि वे मीडिया के ख़िलाफ़ नहीं है (जैसे कॉरपोरेट मीडिया और जन पक्षीय मीडिया में कोई फ़र्क ही न हो). उनके बयानों को तोड-मरोड़ कर पेश किया गया वगैरह-बगैरह. हद तो तब हो गई जब कॉरपोरेट मीडिया के पक्ष में कदमताल करते हुए उन्होंने देश में मीडिया नैतिकता को ठेंगा दिखाने वाले टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप और ब्रिटिश उपनिशवाद के प्रतीक रॉयटर्स के साझा चैनल पर कोर्ट की तरफ़ से लगाए गए सौ करोड़ के जुर्माने को ग़लत करार दे दिया. प्रेस परिषद के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस पीबी सावंत ने टाइम्स नाव पर मानहानि का मुकदमा किया था. चैनल ने बिना जांच-पड़ताल किए गाजियाबाद पीएफ़ स्कैम में आरोपी जज सामंत के बदले पीबी सावंत का फोटो प्रसारित करता रहा. उनके शिकायत करने पर भी चैनल ने उनकी फ़ोटो नहीं हटाई. लिखित शिकायत करने पर भी चैनल ने पांच दिन तक माफ़ी नहीं मांगी आख़िरकार सावंत को कानूनी कार्रवाई का फ़ैसला लेना पड़ा. आख़िरकार मुंबई हाईकोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी जस्टिस सावंत के हक़ में फ़ैसला दिया.
काटजू की डैमेज कंट्रोल की कोशिशों के बावजूद भी मीडिया मालिकों के संगठन उन्हें सबक सिखाना चाहते हैं. फिलहाल मीडिया मालिकों और काटजू के बीच चुहे-बिल्ली का खेल जारी है. प्रेस काउसिंल की पहली बैठक में इंडियन न्यूज़पेरस सोसायटी (आईएनएस) के चार प्रतिनिधियों ने काटजू के बयान से नाराज़ बैठक का बहिष्कार किया. बड़े अख़बार मालिकों के प्रभाव वाली संस्था आईएनएस ने बड़ी चालाकी से काटजू के बाक़ी मुद्दों को किनारे करते हुए उनसे इस बात पर माफ़ी मांगने के लिए जोर दिया है कि वो अपनी इस बात के लिए माफ़ी मांगें कि भारतीय मीडिया में ज़्यादातर पत्रकार कम समझदार हैं. आईएनएस चाहता है कि काटजू इस मुद्दे पर माफ़ी मांग लें तो उनकी बाक़ी सभी स्थापनाओं पर भी अपने आप प्रश्न चिन्ह लग जाएगा. काटजू पर दबाव का ही नतीज़ा है कि पहले उन्होंने प्रेस परिषद के कागजी शेर वाली भूमिका पर भी सवाल उठाए थे. उन्होंने घोषणा की थी कि वे प्रधानमंत्री से इस मामले में हस्तक्षेप कर काउंसिल को दंडात्मक अधिकार दिए जाने की बात करेंगे. लेकिन काटजू अब अपनी इस बात से भी पीछे हट गए हैं.
काटजू ने जो भी बातें कही हैं उनको नकारा नहीं जा सकता, लेकिन वे सिर्फ़ मीडिया की सामग्री के नियमन पर ही ज़्यादा ज़ोर देते हैं. वे सिर्फ़ बुरे परिणामों की तरफ़ इशारा कर रहे हैं. उनकी वजहों पर बात करने से साफ़-साफ़ बच रहे हैं. जिस प्रेस परिषद के वे फिलहाल अध्यक्ष हैं, उसकी संरचना पर ही नज़र डाली जाए तो वो प्रकाशकों और सरकार के पक्ष में ज़्यादा झुकी हुई हैं. प्रेस परिषद के अध्यक्ष का चयन भी सरकार की मर्जी के ख़िलाफ़ नहीं हो सकता. इसलिए काटजू भी सरकार की उन नीतियों पर बिल्कुल भी बात नहीं करते जिस वजह से हमारे मीडिया की आज ये हालत है. वे मीडिया में उदारीकरण की नीतियों से पैदा हुई एकाधिकार, मीडियानेट और प्राइवेटी ट्रीटी जैसी बीमारियों पर भी बात नहीं करते. ऐसा होने पर स्वाभाविक तौर सरकार के राजनीतिक-आर्थिक फ़ैसलों पर भी सवाल उठेंगे. इसलिए काटजू मीडिया मालिकों की मुनाफ़ा कमाने की होड़ पर भी सवाल नहीं उठाते. इस तरह देखा जाए तो सरकार और मीडिया मालिकों के बीच मीडिया नियमन के नाम पर जिस तरह नकली युद्ध चल रहा है. काटजू भी उसी की पैदावार हैं. सरकारी नीतियों के वजह से ही विशालकाय कॉरपोरेट मीडिया का उदय हुआ है. मीडिया और राजनीतिज्ञों के रिश्ते भी जग ज़ाहिर हो चुके हैं. राडिया टेप कांड और पेड न्यूज़ जैसे मामले इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण हैं. टेलीकम्युनिकेशन से संबंधित टूजी स्पेक्ट्रम की नीलामी को अगर देखें तो इससे पता चलता है कि उदारवादी आर्थिक नीतियों के तार किस तरह मीडिया, कॉरपोरेट और राजनीति से जुड़े हैं. काटजू से ज़्यादा समझदार तो प्रेस परिषद के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस सावंत थे जिन्होंने कॉरपोरेट मीडिया के बजाय को-ऑपरेटिव मीडिया स्थापित करने पर ज़ोर दिया था.
नव उदारवादी आर्थिक नीतियों ने हमारे मीडिया का चरित्र बदलकर रख दिया है. आम पत्रकारों को इसमें कोई अधिकार नहीं हैं. पत्रकार संगठनों को गैरजरूरी बना दिया गया है. इसलिए संपूर्ण पत्रकार विरादरी की तरफ़ से कुछ सेलिब्रिटी किस्म के मालिकों के एजेंट पत्रकार जगह-जगह बोलते दिखाई देते हैं. ठेके पर काम करने की वजह से आम पत्रकारों के ऊपर हर वक़्त नौकरी जाने के ख़तरा बना रहता है, तो वे कैसे पत्रकारिता के आदर्शों को सुरक्षित रख पाएंगे. मजबूरी में उन्हें वो सबकुछ करना पड़ता है जो मालिक, प्रबंधन और उनका पिछलग्गू संपादक चाहता है. आज ज़रूरत इस बात की है कि कूड़ेदान में पड़े वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट को मजबूती से लागू करवाया जाए. काटजू बहुसंख्यक पत्रकारों की इस हालत की तरफ़ बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते.
सागरिका घोष और राजदीप सरदेसाई होने का मतलब
सीएनएन-आईबीएन ने चैनल पर फेस द नेशन कार्यक्रम के तहत उत्तर प्रदेश प्रदेश की राजनीति को लेकर एक बहस आयोजित की थी. बहस के दौरान बाक़ी वक़्ता आपस में सीधे बातचीत रहे थे लेकिन धार्मिक नेता श्रीश्री रविशंकर वहां मौज़ूद नहीं थे. सागरिका घोष दर्शकों को ऐसे दिखाती रही कि जैसे रविशंकर चैनल से लाइव बात कर रहे हों, जबकि उनकी रिकॉर्डिंग काफ़ी पहले की जा चुकी थी. इस तरह कार्यक्रम देख रहे दर्शकों के साथ यह सीधे-सीधे छल था. मीडिया में स्वनियमन की माला जपने वाले संस्थान में इस तरह का फ़रेब स्वनियमन के सारे दावों की पोल खोल देता है. इससे पहले इसी चैनल के मालिक-संपादक और सागरिका घोष के पति राजदीप सरदेसाई भी इसी से मिलती-जुलती एक हरकत को अंजाम दे चुके हैं.
राडिया टेप सामने आ चुके थे. बरखा दत्त, वीर सांघवी, प्रभु चावला समेत राजदीप सरदेसाई की आवाज़ भी उन टेप में मौज़ूद थी. सेलिब्रिटी पत्रकारों का दलाल और लिजलिजा चेहरा पहली बार जनता के सामने आ रहा था. राजदीप सरदेसाई उस दौरान मालिकों की मुखौटा संस्था एडिटर्स गिल्ड के अध्यक्ष भी हुआ करते थे. जब देश में कॉरपोरेट लॉबीइस्ट नीरा राडिया के ऊपर चारों तरफ़ थू-थू हो रही थी. तभी राजदीप अपने चैनल में इंडिया एट नाइन कार्यक्रम के तहत ये बहस आयोजित करवाई कि भारत में लॉबीइंग को कानूनी क्यों नहीं किया जाना चाहिए? एजेंडा को सेट करते हुए राजदीप ने अपने पसंद के वक़्ताओं को शो में बुलाया और यह स्टैंड लेते रहे कि लॉबीइंग यानी दलाली के धंधे में कुछ बुराई नहीं है. इसी बीच चैनल ने कुछ दर्शकों की तरफ़ से लॉबीइंग को कानूनी करने के संबंध में ट्वीटर के संदेशों को प्रसारित किया. एक सचेत दर्शक की कोशिशों की वजह से बाद में पता चला कि ये सारे मैसेज फ़र्जी थे और उन्हें चैनल वालों ने ही खुद डाला था. इस बात का पर्दाफ़ाश होने के बाद चैनल की काफ़ी फ़जीहत हुई थी और राजदीप को माफ़ी भी मांगनी पड़ी.
सीएऩएन-आईबीएन, सागरिका घोष और राजदीप सरदेसाई की उपरोक्त करतूतों को जानने बाद यह जानना भी ज़रूरी है कि ये भारतीय पत्रकारिता के चरित्र को किस तरह प्रदूषित कर रहे हैं. सागरिका और राजदीप आपस में पति-पत्नी भी हैं. सागरिका दूरदर्शन के पूर्व निदेशक भास्कर घोष की बेटी हैं तो राजदीप पूर्व क्रिकेटर दिलीप सरदेसाई के बेटे हैं. वे पत्रकार ही नही बल्कि अपने चैनल के मालिक भी हैं. इस लिहाज़ से देखा जाए तो उनके चैनल में मालिक के व्यवसायिक हितों और पत्रकारीय हितों में सीधा टकराव है. (यह बात कम पूंजी से निकलने वाले नो प्रोफिट-नो लॉस वाले माध्यमों पर लागू नहीं होती) लेकिन फिर भी वे दोनों पद संभाले हुए हैं. सागरिका भी कमोबेश इसी भूमिका मे चैनल के साथ जुड़ी हैं. चैनल का मुख्य मकसद भारतीय बाज़ार में मुनाफ़ा कमाना है. जन सरोकार उनके लिए बहुत बाद की चीज़ है. हां, सरोकारों का दिखावा करना उनके लिए ज़रूरी है. जिसके लिए सरकार की तरफ़ से उन्हें पद्मश्री मिल चुका है. इस मामले में सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि आख़िर एक पत्रकार, मालिक बनने की होड़ में कैसे शामिल हो जाता है.
सीएऩएऩ-आईबीएऩ, दुनिया की सबसे बड़ी मीडिया कंपनियों में से एक टाइम एंड वॉर्नर की सहयोगी कंपनी है. इसका मुख्य चैनल सीएऩएऩ अमेरिका से प्रसारित होता है. इसकी मुख्य कंपनी ने दुनियाभर के मीडिया बाज़ार पर कब्ज़ा कर उन देशों की संस्कृति और वहां की स्वतंत्र संस्थाओं को बर्बाद कर दिया है. अब यही काम सीएनएन-आईबीएन के माध्यम से भारत में भी हो रहा है. नब्बे के बाद जिस तरह से सरकार ने बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए भारतीय बाज़ार खोल दिया गया. हर संस्था की तरह मीडिया में भी उनका हस्तक्षेप उसी अनुपात में बढ़ा है. मीडिया के माध्यम से मुनाफ़ा कमाने की होड़ को भी इसी संदर्भ में समझा जा सकता है.
सागरिका घोष और राजदीप सरदेसाई होने का मतलब कॉरपोरेट मीडिया की लूट में शामिल होना है.
न्यायविद जस्टिस काटजू कॉरपोरेट लूट की इस होड़ पर क्यों चुप हैं ?
(समयांतर के दिसंबर अंक में प्रकाशित)
4 comments:
इस लिहाज़ से देखा जाए तो उनके चैनल में मालिक के व्यवसायिक हितों और पत्रकारीय हितों में सीधा टकराव है. badhiya lekh.
पोस्ट को पढकर क्षोभ तो हुआ पर आश्चर्य नहीं। मीडिया में भी भ्रष्टाचार गहरे पैठ कर चुका है। मीडिया राजनीतिज्ञों से लाभ तो उठाना चाहता है, लेकिन उनके चंगुल में फंसना भी नहीं चाहता। जैसा कि आपकी पोस्ट से ही विदित है, दर्शकों की जागरुकता इस दिशा में बडा काम कर सकती है।
ट्विटर वाली उन फ़र्ज़ी अपडेटों की पोल-खुलाई सबसे पहले यहाँ हुई थी—
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सुंदर एवम् सारगर्भित विश्लेषण । पहली बार ये मामला इतनी आसानी से समझ पाया हूँ ।
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