जाँ
निसार साहब की शुरूआती ज़िन्दगी एक कशमकश से दूसरी कशमकश का सफ़र है . इन्होने ज़िन्दगी
रहते इतने नाक़ीज़ हालात और तल्ख़ लम्हात को जिया है, के
कोई और होता तो खुद-ख़ुशी कर लेता या फिर पागलखाने की रौनक बढ़ा रहा होता . बहुत
से माज़ी के नागवार लम्हे उनके आज को खुरचते जा रहे थे . जिस्म
और दिमाग तक की बात रहती तो ग़म न था, लेकिन अंजुम से अपने पहले-२ नकामयाब इश्क ने जाँ
निसार के दिल पर गहरी चोट की . इस चोट का असर इतना था के अब जाँ निसार इश्क तो
एक तरफ, शादी से भी परहेज़ करने लगे . माँ
और बहन की लाख कोशिशें भी बेकार साबित हो रही थीं . जैसे-तैसे
घर वालों की सख्ती के चलते एक रोज़ अपने को चारों तरफ से घिरा पाया तो 'साफिया' से निकाह करने को राज़ी हो गए . लेकिन
इस से पहले के बात दोनों तरफ से पक्की होती, ये जनाब एक बार फिर भाग खड़े हए . बहुत
मुश्किलों से जब काबू में आये तो घर वालों ने २५ दिसम्बर १९४३ को इन का निकाह
सफ़िया से करवा दिया .
'सफ़िया' इसरार-उल-हक 'मजाज़' की बहन थी और उसने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से एम. ए. बी. टी. फर्स्ट-क्लास-फर्स्ट में पास किया था . शादी से पहले सफ़िया अलीगढ़ टीचर्ज़ ट्रेनिंग कॉलेज में पढ़ाती थीं . बहरहाल, जाँ निसार साहब की नज़र में सफ़िया के तहज़ीब और तालीम याफ्तः होने से उसकी खूबसूरती को चार चाँद लग लग गए थे . अब आलम ये था के शादी के बाद दोनों एक दूसरे के इश्क में गिरफ्तार थे . इस कामयाब इश्क और शादी के पीछे जाँ निसार साहब की चचेरी बहन 'फ़ातेमा' का बहुत बड़ा हाथ था . फ़ातेमा, जाँ निसार का बहुत ख्याल रखती थी .
जाँ निसार को अपने नाज़ उठावाना खूब आता था . रात को निसार को जब भी प्यास लगती, वो कभी खुद पानी पीने नहीं जाते थे, बल्कि सफ़िया को सोते से जगा कर कहते 'ज़रा पानी पिला दो' .
शादी के १०-१२ दिनों में ही सफ़िया को मायके की याद सताने लगी, जो की वाजेह सी बात मालूम होती है . निसार साहब न चाहते हुए भी उन्हें अलीगढ़ छोड़ आये और वापिस ग्वालियर आकर सफ़िया को ये जताने लगे जैसे वो उसे बिलकुल भी याद नहीं करते, यहाँ तक के ख़तों का सिलसिला भी बरकरार नहीं रखते . सफ़िया के ख़तों का कभी-2 बड़ी काहिली से जवाब दे देते . सफ़िया की कसीदगी का जब कोई ठीकाना न रहा तो वो वापिस ग्वालियर आ पहुंची . यहाँ निसार साहब अपनी नज़्म 'हसीं आग' कह रहे थे . सफ़िया का मोहब्बत से इस्तेकबाल तो किया लेकिन ये हुक्म भी सुना दिया के जब तक उनकी नज़्म पूरी न हो, उनसे बात न की जाए . सफ़िया मन ही मन में कुढ़ती रही और निसार साहब के नज़्म पूरा होना का इंतज़ार करने लगी . लेकिन जब निसार साहब ने नज़्म मुक़म्मिल करके सभी को सुनाई तो मानो सफ़िया को उसके सारे सवालातों, सारे शिकवों और शिकायतों का सिला मिल गया हो . वो बहुत खुश थी और निसार से कहने लगी, "अख्तर ! तुमने ये नज़्म किस के लिए कही है." निसार साहब ने इत्मीनान से झूठ बोलते हुए कहा, "अंजुम के लिए ." लेकिन सफ़िया इस झूठ को मानने के लिए बिलकुल तैयार नहीं हुई .
हसीं आग
तेरी पेशानी-ऐ-रंगीन में, झलकती है जो आग
तेरे रुख्सार के फूलों में, दमकती है जो आग
तेरे सीने में जवानी की, दहकती है जो आग
ज़िन्दगी की ये हसीं आग, मुझे भी दे दे ..
तेरी आँखों में फरोजां है जवानी के शरार
लैब-ऐ-गुल-रंग पे रक्सां है, जवानी के शरार
तेरी हर सांस में गलताँ है जवानी की शरार
ज़िन्दगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे ..
हर अदा में ये जवान आतिश-ऐ-जज़्बात की रौ
ये मचलते हुए शोले, ये तड़पती हुई लौ
आ मेरी रूह पे भी दाल दे अपना परतौ
ज़िन्दगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे ..
कितनी महरूम निगाहें हैं , तुझे क्या मालूम
कितनी तरसी हुई बाहें हैं, तुझे क्या मालूम
कैसे धुंदली हुई राहें हैं, तुझे क्या मालूम
ज़िन्दगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे ..
आ की ज़ुल्मत में कोई नूर का सामां कर लूं
अपने तारीक शबिस्तां को शबिस्तां कर लूं
इस अँधेरे में कोई शमा फरोजां कर लूं
ज़िन्दगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे ..
बार-ऐ-ज़ुल्मात से सीने की फ़ज़ा है बोझिल
न कोई साज़-ऐ-तमन्ना, न कोई सोज़-ऐ-अमल
आ, की मशअल से तेरी में भी जला लूं मशअल
ज़िन्दगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे ...
ग्वालियर का माहौल जाँ निसार के लिए माक़ूल नहीं था, न तो वहां दोस्त थे न ही हम-ख्याल अदीब . घर से कॉलेज और कॉलेज से घर आना-जाना ही मानो दिलबस्तगी का ज़रिया था . वो इस खुश्क और बेज़ौक ज़िन्दगी से चीड़-चिड़े और नाज़ुक-मिज़ाज हो गए थे . मौके-बेमौके खफ़ा हो जाते और अपना सा मुंह लिए बैठे रहते . साफिया की बेपनाह मुहब्बत और खुश-ख्याली भी निसार की फितरत में शुरूआती दिनों में कोई ख़ास तबदीली नहीं ला पाई . साफिया ऐसे मौकों पर अक्सर कुछ शेर या फिकरे कहा करती थी; मिसाल के तौर पर:
"इक हसीं हर वक़्त हो इनको मनाने के लिए "
"इस बलाए-जाँ-से 'आतिश' देखिये, क्यों कर निभे ?
दिल सिवा शीशे से नाज़ुक, दिल से नाज़ुक खू-ऐ-दोस्त"
जाँ निसार की शरीक़-ऐ-हयात, सफ़िया से बेहतर कोई हो नहीं सकती थी . सफ़िया निहायती ज़हीन और नब्बाज़ लड़की थी, वर्ना जाँ निसार के साथ निभाना कोई आसान काम न था . सफ़िया ने निसार की फितरत का अंदाजा शादी के इब्तेदाई दिनों में ही लगा लिया था . उसे निसार की चाहत पाने के लिए बड़े पापड़ बेलने पड़े और ख़ासी आजमाइशों से भी गुज़ारना पड़ा .
जाँ निसार साहब की चचेरी बहन 'फ़ातेमा' और सफ़िया की गहरी दोस्ती थी . सफ़िया, फ़ातेमा के मना करने के बावजूद, कोई भी काम उस से पूछे बगैर नहीं करती थी . सफ़िया और फ़ातेमा की गुफ्तगू का मौजू ज्यादातर जाँ निसार ही रहते थे . सफ़िया निसार के बारे में बाते कर बिलकुल भी नहीं थकती थी . कभी-कभार तो फ़ातेमा इस बात पर गुस्सा भी करती, लेकिन फिर सफ़िया उसके गले में बाहें डाल, उसे झट से मना लेती थी . यूं तो निसार और सफ़िया के बीच कभी अनबन नहीं रहती थी, लेकिन कभी हो भी जाये तो वो इक तरफ़ा ही रहती थी . निसार के नाज़ुक मिज़ाज की वजह से सफ़िया उनसे ज्यादा नहीं उलझती थी . कभी-कभार लड़ाईयाँ हो भी जाये तो इस के असबाब निहायती जज्बाती होते थे और इस के बाद निसार न किसी से बात करते थे न ही खाना खाते थे . बस खामोश बैठे मय और सिगरेट पीते रहते थे . ऐसी सूरत में उनके आस पास बची हुई सिगरटों का ढेर लग जाता . फ़ातेमा फिर दोनों को फटकार लगाती और बोतल और गलास को अलमारी में बंद कर देती और फिर थोड़ी देर में दोनों की वापिस बन जाती . लड़ाई की वजह का पता करने पर मालूम होता के निसार ने सफ़िया को आवाज़ दी थी और सफ़िया किसी काम में मशगूल होने की वजह से आ नहीं पाई थी . १० मिनट की देर लगा दी थी .
जाँ निसार सफ़िया की मुहब्बत में लिखते हैं:
फराहम करके मेरे दिल के अज्ज़ाए-परेशाँ को
मेरी बिखरी हुई हस्ती को सूरत बक्श दी तुने
कहाँ बाक़ी रहा था ज़िन्दगी का हौसला मुझ में
मुझे इकबार फिर जीने की हिम्मत बक्श दी तुने
वो गम हो या मसर्रत हो, वो मरना हो के जीना हो
मुझे हर हाल में अपनी ज़रुरत बक्श दी तूने ...
'सफ़िया' इसरार-उल-हक 'मजाज़' की बहन थी और उसने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से एम. ए. बी. टी. फर्स्ट-क्लास-फर्स्ट में पास किया था . शादी से पहले सफ़िया अलीगढ़ टीचर्ज़ ट्रेनिंग कॉलेज में पढ़ाती थीं . बहरहाल, जाँ निसार साहब की नज़र में सफ़िया के तहज़ीब और तालीम याफ्तः होने से उसकी खूबसूरती को चार चाँद लग लग गए थे . अब आलम ये था के शादी के बाद दोनों एक दूसरे के इश्क में गिरफ्तार थे . इस कामयाब इश्क और शादी के पीछे जाँ निसार साहब की चचेरी बहन 'फ़ातेमा' का बहुत बड़ा हाथ था . फ़ातेमा, जाँ निसार का बहुत ख्याल रखती थी .
जाँ निसार को अपने नाज़ उठावाना खूब आता था . रात को निसार को जब भी प्यास लगती, वो कभी खुद पानी पीने नहीं जाते थे, बल्कि सफ़िया को सोते से जगा कर कहते 'ज़रा पानी पिला दो' .
शादी के १०-१२ दिनों में ही सफ़िया को मायके की याद सताने लगी, जो की वाजेह सी बात मालूम होती है . निसार साहब न चाहते हुए भी उन्हें अलीगढ़ छोड़ आये और वापिस ग्वालियर आकर सफ़िया को ये जताने लगे जैसे वो उसे बिलकुल भी याद नहीं करते, यहाँ तक के ख़तों का सिलसिला भी बरकरार नहीं रखते . सफ़िया के ख़तों का कभी-2 बड़ी काहिली से जवाब दे देते . सफ़िया की कसीदगी का जब कोई ठीकाना न रहा तो वो वापिस ग्वालियर आ पहुंची . यहाँ निसार साहब अपनी नज़्म 'हसीं आग' कह रहे थे . सफ़िया का मोहब्बत से इस्तेकबाल तो किया लेकिन ये हुक्म भी सुना दिया के जब तक उनकी नज़्म पूरी न हो, उनसे बात न की जाए . सफ़िया मन ही मन में कुढ़ती रही और निसार साहब के नज़्म पूरा होना का इंतज़ार करने लगी . लेकिन जब निसार साहब ने नज़्म मुक़म्मिल करके सभी को सुनाई तो मानो सफ़िया को उसके सारे सवालातों, सारे शिकवों और शिकायतों का सिला मिल गया हो . वो बहुत खुश थी और निसार से कहने लगी, "अख्तर ! तुमने ये नज़्म किस के लिए कही है." निसार साहब ने इत्मीनान से झूठ बोलते हुए कहा, "अंजुम के लिए ." लेकिन सफ़िया इस झूठ को मानने के लिए बिलकुल तैयार नहीं हुई .
हसीं आग
तेरी पेशानी-ऐ-रंगीन में, झलकती है जो आग
तेरे रुख्सार के फूलों में, दमकती है जो आग
तेरे सीने में जवानी की, दहकती है जो आग
ज़िन्दगी की ये हसीं आग, मुझे भी दे दे ..
तेरी आँखों में फरोजां है जवानी के शरार
लैब-ऐ-गुल-रंग पे रक्सां है, जवानी के शरार
तेरी हर सांस में गलताँ है जवानी की शरार
ज़िन्दगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे ..
हर अदा में ये जवान आतिश-ऐ-जज़्बात की रौ
ये मचलते हुए शोले, ये तड़पती हुई लौ
आ मेरी रूह पे भी दाल दे अपना परतौ
ज़िन्दगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे ..
कितनी महरूम निगाहें हैं , तुझे क्या मालूम
कितनी तरसी हुई बाहें हैं, तुझे क्या मालूम
कैसे धुंदली हुई राहें हैं, तुझे क्या मालूम
ज़िन्दगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे ..
आ की ज़ुल्मत में कोई नूर का सामां कर लूं
अपने तारीक शबिस्तां को शबिस्तां कर लूं
इस अँधेरे में कोई शमा फरोजां कर लूं
ज़िन्दगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे ..
बार-ऐ-ज़ुल्मात से सीने की फ़ज़ा है बोझिल
न कोई साज़-ऐ-तमन्ना, न कोई सोज़-ऐ-अमल
आ, की मशअल से तेरी में भी जला लूं मशअल
ज़िन्दगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे ...
ग्वालियर का माहौल जाँ निसार के लिए माक़ूल नहीं था, न तो वहां दोस्त थे न ही हम-ख्याल अदीब . घर से कॉलेज और कॉलेज से घर आना-जाना ही मानो दिलबस्तगी का ज़रिया था . वो इस खुश्क और बेज़ौक ज़िन्दगी से चीड़-चिड़े और नाज़ुक-मिज़ाज हो गए थे . मौके-बेमौके खफ़ा हो जाते और अपना सा मुंह लिए बैठे रहते . साफिया की बेपनाह मुहब्बत और खुश-ख्याली भी निसार की फितरत में शुरूआती दिनों में कोई ख़ास तबदीली नहीं ला पाई . साफिया ऐसे मौकों पर अक्सर कुछ शेर या फिकरे कहा करती थी; मिसाल के तौर पर:
"इक हसीं हर वक़्त हो इनको मनाने के लिए "
"इस बलाए-जाँ-से 'आतिश' देखिये, क्यों कर निभे ?
दिल सिवा शीशे से नाज़ुक, दिल से नाज़ुक खू-ऐ-दोस्त"
जाँ निसार की शरीक़-ऐ-हयात, सफ़िया से बेहतर कोई हो नहीं सकती थी . सफ़िया निहायती ज़हीन और नब्बाज़ लड़की थी, वर्ना जाँ निसार के साथ निभाना कोई आसान काम न था . सफ़िया ने निसार की फितरत का अंदाजा शादी के इब्तेदाई दिनों में ही लगा लिया था . उसे निसार की चाहत पाने के लिए बड़े पापड़ बेलने पड़े और ख़ासी आजमाइशों से भी गुज़ारना पड़ा .
जाँ निसार साहब की चचेरी बहन 'फ़ातेमा' और सफ़िया की गहरी दोस्ती थी . सफ़िया, फ़ातेमा के मना करने के बावजूद, कोई भी काम उस से पूछे बगैर नहीं करती थी . सफ़िया और फ़ातेमा की गुफ्तगू का मौजू ज्यादातर जाँ निसार ही रहते थे . सफ़िया निसार के बारे में बाते कर बिलकुल भी नहीं थकती थी . कभी-कभार तो फ़ातेमा इस बात पर गुस्सा भी करती, लेकिन फिर सफ़िया उसके गले में बाहें डाल, उसे झट से मना लेती थी . यूं तो निसार और सफ़िया के बीच कभी अनबन नहीं रहती थी, लेकिन कभी हो भी जाये तो वो इक तरफ़ा ही रहती थी . निसार के नाज़ुक मिज़ाज की वजह से सफ़िया उनसे ज्यादा नहीं उलझती थी . कभी-कभार लड़ाईयाँ हो भी जाये तो इस के असबाब निहायती जज्बाती होते थे और इस के बाद निसार न किसी से बात करते थे न ही खाना खाते थे . बस खामोश बैठे मय और सिगरेट पीते रहते थे . ऐसी सूरत में उनके आस पास बची हुई सिगरटों का ढेर लग जाता . फ़ातेमा फिर दोनों को फटकार लगाती और बोतल और गलास को अलमारी में बंद कर देती और फिर थोड़ी देर में दोनों की वापिस बन जाती . लड़ाई की वजह का पता करने पर मालूम होता के निसार ने सफ़िया को आवाज़ दी थी और सफ़िया किसी काम में मशगूल होने की वजह से आ नहीं पाई थी . १० मिनट की देर लगा दी थी .
जाँ निसार सफ़िया की मुहब्बत में लिखते हैं:
फराहम करके मेरे दिल के अज्ज़ाए-परेशाँ को
मेरी बिखरी हुई हस्ती को सूरत बक्श दी तुने
कहाँ बाक़ी रहा था ज़िन्दगी का हौसला मुझ में
मुझे इकबार फिर जीने की हिम्मत बक्श दी तुने
वो गम हो या मसर्रत हो, वो मरना हो के जीना हो
मुझे हर हाल में अपनी ज़रुरत बक्श दी तूने ...
अलीगढ़
मुस्लिम यूनिवर्सिटी से 1939 में
अव्वल दर्जे में एम. ए. किया और १९४० से १९४७ तक गवालियर के विक्टोरिया कॉल्लेज
में लेक्चरर रहे . १९४७ से करीबन २ बरसों तक भोपाल के हामिदिया
सरकारी कॉल्लेज में उर्दू-फ़ारसी इदारे के सदर रहे . सफ़िया
को भी भोपाल कॉल्लेज में काम मिल गया था . वहां जो करीबन २-३
साल दोनों ने एक साथ बिताए वो उनकी ज़िन्दगी के बेहतरीन लम्हों में से एक थे . वहीँ
रहते हुए निसार जल्द ही तरक्की-पसंद अंजुम के भी सदर मुन्तखिब हो गए . कम्युनिस्ट
ख्यालात की वजह से जल्दी ही इस्तीफा भी देना पड़ा और मुलाज़्मत छोड़ के १९५० में
फ़िल्मी दुनिया में किस्मत आज़माने के लिए बम्बई चले आये . सफ़िया
को दिल पर पत्थर रखकर भोपाल में ही रुकना पड़ा . इन
दिनों अचानक सफ़िया की तबियत बहूत खराब रहने लगी और वो लखनऊ आ गयी . वहां
निसार फ़िल्मी दुनिया के चक्कर लगा-२ कर परेशान हो रहे थे . जाँ
निसार बेरोजगार और खाली जेब होने की वजह से लखनऊ भी नहीं आ पा रहे थे . किसी
तरह यहाँ-वहां से किराये के पैसे जुटा कर जब लखनऊ पहुंचे, तब
तक सफ़िया निसार से बहुत दूर जा चुकी थी .
अपनी शादी की सालगिरह २५ दिसम्बर १९५२ पर लिखी नज़्म की अभी सियाही भी न सूखने पाई थी के ये हादसा हो गया . निसार की वह नज़्म को यहाँ पेश है:
ये तेरे प्यार की ख़ुश्बू से महकती हुई रात
अपने सीने में छुपाये तेरे दिल की धड़कन
आज फिर तेरी अदा से मेरे पास आई है
अपनी आँखों में तेरी ज़ुल्फ़ का डाले काजल
अपनी पलकों में सजाये हुए अरमानो के ख्वाब
अपने आँचल पे तमन्ना के सितारे टाँके
गुनगुनाती हुई यादों की लवें जाग उठी
कितने गुज़रे हुए लम्हों के चमकते जुगनू
दिल को हाले में लिए नाच रहे हैं कब से
कितने लम्हे जो तेरी ज़ुल्फ़ के साये के तले
ग़र्क़ होकर तेरी आँखों के हसीं सागर में
ग़म-ऐ-दौराँ से बहुत दूर गुज़ारे मैंने
कितने लम्हे की तेरी प्यार भरी नज़रों ने
किस सलीक़े से सजाई मेरे दिल की महफ़िल
किस क़रीने से सिखाया मुझे जीने का शऊर
कितने लम्हे की हसीं नर्म सुबक आँचल से
तुने बढ़कर मेरे माथे का पसीना पोंछा
चांदनी बन गयी राहों की कड़ी धुप मुझे
कितने लम्हे की ग़म-ऐ-ज़ीस्त के तूफानों में
जिंदगानी की जलाये हुए बाग़ी मशाल
तू मेरा अजम-ऐ-जवाँ बनकर मेरे साथ रही
कितने लम्हे की ग़म-ऐ-दिल से उभर कर हमने
इक नयी सुबह-ऐ-मुहब्बत की लगन अपनाई
सारी दुनिया के लिए, सारे ज़माने के लिए
इन्ही लम्हों के गुल-आवेज़ शरारों का तुझे
गूंधकर आज कोई हार पहना दूं, आ आ
चूमकर मांग तेरी तुझको सजा दूं, आ आ
अपनी शादी की सालगिरह २५ दिसम्बर १९५२ पर लिखी नज़्म की अभी सियाही भी न सूखने पाई थी के ये हादसा हो गया . निसार की वह नज़्म को यहाँ पेश है:
ये तेरे प्यार की ख़ुश्बू से महकती हुई रात
अपने सीने में छुपाये तेरे दिल की धड़कन
आज फिर तेरी अदा से मेरे पास आई है
अपनी आँखों में तेरी ज़ुल्फ़ का डाले काजल
अपनी पलकों में सजाये हुए अरमानो के ख्वाब
अपने आँचल पे तमन्ना के सितारे टाँके
गुनगुनाती हुई यादों की लवें जाग उठी
कितने गुज़रे हुए लम्हों के चमकते जुगनू
दिल को हाले में लिए नाच रहे हैं कब से
कितने लम्हे जो तेरी ज़ुल्फ़ के साये के तले
ग़र्क़ होकर तेरी आँखों के हसीं सागर में
ग़म-ऐ-दौराँ से बहुत दूर गुज़ारे मैंने
कितने लम्हे की तेरी प्यार भरी नज़रों ने
किस सलीक़े से सजाई मेरे दिल की महफ़िल
किस क़रीने से सिखाया मुझे जीने का शऊर
कितने लम्हे की हसीं नर्म सुबक आँचल से
तुने बढ़कर मेरे माथे का पसीना पोंछा
चांदनी बन गयी राहों की कड़ी धुप मुझे
कितने लम्हे की ग़म-ऐ-ज़ीस्त के तूफानों में
जिंदगानी की जलाये हुए बाग़ी मशाल
तू मेरा अजम-ऐ-जवाँ बनकर मेरे साथ रही
कितने लम्हे की ग़म-ऐ-दिल से उभर कर हमने
इक नयी सुबह-ऐ-मुहब्बत की लगन अपनाई
सारी दुनिया के लिए, सारे ज़माने के लिए
इन्ही लम्हों के गुल-आवेज़ शरारों का तुझे
गूंधकर आज कोई हार पहना दूं, आ आ
चूमकर मांग तेरी तुझको सजा दूं, आ आ
अभी
शादी की सालगिरह पर लिखी इस नज़्म की स्याही सूखने भी न पाई थी के सफिया अल्लाह को
प्यारी हो गयी . निसार
ने उसके इन्तेकाल पर ३८ अशअर में 'ख़ाक-ऐ-दिल' नज़्म
कही, जिसके कुछ हिस्से यूँ हैं-
लखनऊ ! मेरे वतन, मेरे चमनज़ार वतन !!
तेरे गहवारा-ऐ-आगोश में ऐ जाने बहार !
अपनी दुनिया-ऐ-हसीं दफ़्न किये जाता हूँ
तुने जिस दिल को धड़कने की अदा बख्शी थी
आज वो दिल भी यहाँ दफ़्न किये जाता हूँ .
दफ़्न है देख मेरा अहद-ऐ-बहारां तुझ में
दफ़्न है देख मेरी रूह-ऐ-गुलिस्तान तुझ में
मेरे मरने का सलीक़ा मेरे जीने का शऊर
मेरा नामूस-ऐ-वफ़ा मेरी मुहब्बत का गरूर
मेरी नब्ज़ों का तरन्नुम, मेरे नग्मों की पुकार
मेरे शेरों की सजावट, मेरे गीतों का सिंगार
ये मेरे प्यार का मदफन ही नहीं है तनहा
एक साथी भी तह-ऐ-ख़ाक यहाँ सोती है
ऐ मेरी रूह-ऐ-चमन! ख़ाक-ऐ-लहद से तेरी
आज भी मुझको तेरे प्यार की बू आती है
ज़ख्म सीने के महकते हैं तेरी खुशबू से
वो महक है के मेरी सांस घुटी जाती है
मैं और इन आँखों से देखूं तुझे पैबंद ज़मीं
इस क़दर ज़ुल्म नहीं, हाय नहीं, हाय नहीं
कोई ऐ काश ! बुझा दे मेरी आँखों के दिये
छीन ले मुझसे कोई काश ! निगाहें मेरी
ऐ मेरी शम-ऐ-वफ़ा ! ऐ मेरी मंजिल के चिराग़
आज तारीक हुयी जाती है, राहें मेरी
तुझको रोऊँ भी तो क्या रोऊँ के इन आँखों में
अश्क पत्थर की तरह जम से गए हैं मेरे
ज़िन्दगी अर्सः गह-ऐ-जुह्द-ऐ-मुसलसल ही सही
एक लम्हे को क़दम थक से गए हैं मेरे
ज़िन्दगी देख तुझे हुक्म-ऐ-सफ़र देती है
इक दिल-ऐ-शोला बजां साथ लिए जाता हूँ
हर क़दम तुने कभी अज़म-ऐ-जवां बख्शा था
मैं वही अज़म-ऐ-जवां साथ लिए जाता हूँ
चूमकर आज तेरी ख़ाक-ऐ-लहद के ज़र्रे
अनगिनत फूल मुहब्बत के चढ़ाता जाऊं
जाने इस सिम्त कभी मेरा गुज़र हो के न हो
आखिरी बार गले तुझको लगाता जाऊं
लखनऊ ! मेरे वतन, मेरे चमनज़ार वतन !!
देख इस ख़ाक को आँखों में बसाकर रखना
इस अमानत को कलेजे से लगाकर रखना
लखनऊ मेरे वतन, मेरे चमनज़ार वतन !
सफिया की मौत ने निसार को दीवाना सा बना दिया था, मानो उसकी दुनिया ही उजड़ गयी हो . उनका किसी भी काम में मन नहीं लगता . रह-रह कर सफिया के साथ गुज़ारे लम्हे याद आते . सफिया और निसार की १० बरसों की शादी-शुदा ज़िन्दगी में भी दोनों को बहुत कम मौका साथ रहने का मिला . अक्सर किसी न किसी वजह से एक दूसरे की जुदाई का कड़वा घुट दोनों को पीना पड़ता . सफिया का अलीगढ़ में चैन खोया रहता और निसार का ग्वालियर में . फुरक़त के उन दिनों में दोनों सर्द आहें भरने पर मजबूर थे . हालांकि अलीगढ़ और ग्वालियर के बीच महज़ १४२ मील का फासला था, लेकिन ये फासला हिमालय परबत के मानिंद क़ायम खड़ा रहा . खराब माली हालात के चलते दोनों में से कोई भी नौकरी नहीं छोड़ सका . करीबन ३-४ बरस के बाद दोनों को एक साथ भोपाल में रहने का मौक़ा नसीब हो ही गया . लेकिन ये विसाल घड़ी भर का था, २ बरस बीतते ही फिर दोनों जुदा हो गए .
निसार की ज़िन्दगी में वैसे ही बहुत ग़म थे, लेकिन सफिया ने मरहम का काम किया था . सफिया के ग़म ने, छोटे-छोटे बच्चों की परवरिश ने और बेरोज़गारी ने निसार की ज़िन्दगी के बखिये उधेड़ के रख दिए . शराब कभी कभार सफिया के सामने भी पीते थे, लेकिन अब खुद को शराब में गर्क़ कर चुके थे . मानो अब निसार मय नहीं, मय निसार को पी रही हो .
सफिया और निसार के बीच अर्ज़ी फासलों को उनके ख़त अक्सर कम कर देते थे . ऐसे ही कुछ खतूत से चुनिन्दा जुमले यहाँ पेश कर हैं, जो न उनकी मुहब्बत पर किरदार को भी वाजेह करता है .
सफ़िया और निसार, एक मिसाल हैं, शादी के बाद के इश्क की . ये दोनों एक दूसरे से इतनी मुहब्बत करते थे के इक पल के लिए भी एक दूसरे के बगैर रहना नागवार गुज़रता . लेकिन किस्मत और पेचीदा हालात के तहत दोनों को बहुत वक़्त एक दूसरे की जुदाई में ही मर-२ के जीना पड़ा . इन दोनों की मुहब्बत की दास्ताँ तो तफसील में बयान करना मुश्किल है, बहरहाल, सफ़िया के खतूत से इसकी झलक पेश कर रहा हूँ .
सफ़िया के खतूत से -
लखनऊ ! मेरे वतन, मेरे चमनज़ार वतन !!
तेरे गहवारा-ऐ-आगोश में ऐ जाने बहार !
अपनी दुनिया-ऐ-हसीं दफ़्न किये जाता हूँ
तुने जिस दिल को धड़कने की अदा बख्शी थी
आज वो दिल भी यहाँ दफ़्न किये जाता हूँ .
दफ़्न है देख मेरा अहद-ऐ-बहारां तुझ में
दफ़्न है देख मेरी रूह-ऐ-गुलिस्तान तुझ में
मेरे मरने का सलीक़ा मेरे जीने का शऊर
मेरा नामूस-ऐ-वफ़ा मेरी मुहब्बत का गरूर
मेरी नब्ज़ों का तरन्नुम, मेरे नग्मों की पुकार
मेरे शेरों की सजावट, मेरे गीतों का सिंगार
ये मेरे प्यार का मदफन ही नहीं है तनहा
एक साथी भी तह-ऐ-ख़ाक यहाँ सोती है
ऐ मेरी रूह-ऐ-चमन! ख़ाक-ऐ-लहद से तेरी
आज भी मुझको तेरे प्यार की बू आती है
ज़ख्म सीने के महकते हैं तेरी खुशबू से
वो महक है के मेरी सांस घुटी जाती है
मैं और इन आँखों से देखूं तुझे पैबंद ज़मीं
इस क़दर ज़ुल्म नहीं, हाय नहीं, हाय नहीं
कोई ऐ काश ! बुझा दे मेरी आँखों के दिये
छीन ले मुझसे कोई काश ! निगाहें मेरी
ऐ मेरी शम-ऐ-वफ़ा ! ऐ मेरी मंजिल के चिराग़
आज तारीक हुयी जाती है, राहें मेरी
तुझको रोऊँ भी तो क्या रोऊँ के इन आँखों में
अश्क पत्थर की तरह जम से गए हैं मेरे
ज़िन्दगी अर्सः गह-ऐ-जुह्द-ऐ-मुसलसल ही सही
एक लम्हे को क़दम थक से गए हैं मेरे
ज़िन्दगी देख तुझे हुक्म-ऐ-सफ़र देती है
इक दिल-ऐ-शोला बजां साथ लिए जाता हूँ
हर क़दम तुने कभी अज़म-ऐ-जवां बख्शा था
मैं वही अज़म-ऐ-जवां साथ लिए जाता हूँ
चूमकर आज तेरी ख़ाक-ऐ-लहद के ज़र्रे
अनगिनत फूल मुहब्बत के चढ़ाता जाऊं
जाने इस सिम्त कभी मेरा गुज़र हो के न हो
आखिरी बार गले तुझको लगाता जाऊं
लखनऊ ! मेरे वतन, मेरे चमनज़ार वतन !!
देख इस ख़ाक को आँखों में बसाकर रखना
इस अमानत को कलेजे से लगाकर रखना
लखनऊ मेरे वतन, मेरे चमनज़ार वतन !
सफिया की मौत ने निसार को दीवाना सा बना दिया था, मानो उसकी दुनिया ही उजड़ गयी हो . उनका किसी भी काम में मन नहीं लगता . रह-रह कर सफिया के साथ गुज़ारे लम्हे याद आते . सफिया और निसार की १० बरसों की शादी-शुदा ज़िन्दगी में भी दोनों को बहुत कम मौका साथ रहने का मिला . अक्सर किसी न किसी वजह से एक दूसरे की जुदाई का कड़वा घुट दोनों को पीना पड़ता . सफिया का अलीगढ़ में चैन खोया रहता और निसार का ग्वालियर में . फुरक़त के उन दिनों में दोनों सर्द आहें भरने पर मजबूर थे . हालांकि अलीगढ़ और ग्वालियर के बीच महज़ १४२ मील का फासला था, लेकिन ये फासला हिमालय परबत के मानिंद क़ायम खड़ा रहा . खराब माली हालात के चलते दोनों में से कोई भी नौकरी नहीं छोड़ सका . करीबन ३-४ बरस के बाद दोनों को एक साथ भोपाल में रहने का मौक़ा नसीब हो ही गया . लेकिन ये विसाल घड़ी भर का था, २ बरस बीतते ही फिर दोनों जुदा हो गए .
निसार की ज़िन्दगी में वैसे ही बहुत ग़म थे, लेकिन सफिया ने मरहम का काम किया था . सफिया के ग़म ने, छोटे-छोटे बच्चों की परवरिश ने और बेरोज़गारी ने निसार की ज़िन्दगी के बखिये उधेड़ के रख दिए . शराब कभी कभार सफिया के सामने भी पीते थे, लेकिन अब खुद को शराब में गर्क़ कर चुके थे . मानो अब निसार मय नहीं, मय निसार को पी रही हो .
सफिया और निसार के बीच अर्ज़ी फासलों को उनके ख़त अक्सर कम कर देते थे . ऐसे ही कुछ खतूत से चुनिन्दा जुमले यहाँ पेश कर हैं, जो न उनकी मुहब्बत पर किरदार को भी वाजेह करता है .
सफ़िया और निसार, एक मिसाल हैं, शादी के बाद के इश्क की . ये दोनों एक दूसरे से इतनी मुहब्बत करते थे के इक पल के लिए भी एक दूसरे के बगैर रहना नागवार गुज़रता . लेकिन किस्मत और पेचीदा हालात के तहत दोनों को बहुत वक़्त एक दूसरे की जुदाई में ही मर-२ के जीना पड़ा . इन दोनों की मुहब्बत की दास्ताँ तो तफसील में बयान करना मुश्किल है, बहरहाल, सफ़िया के खतूत से इसकी झलक पेश कर रहा हूँ .
सफ़िया के खतूत से -
1. बाज़ लम्हे ऐसे वीरान महसूस होते हैं, बस जी चाहता है, उड़कर तुम तक पहुँच जाऊं .
2. ख़ुदा के लिए अपनी तंदरुस्ती का खास ख्याल रखो .
3. अच्छा मेरे दोस्त ! कब आओगे, सफ़िया की ज़िन्दगी का हर लहज़ा, इंतज़ार का ही लहज़ा है .
4. अच्छा तो कब आओगे मेरे परदेसी ?
5. सफ़िया के लिए तुम्हारा आना क्या मायने रखता है . इसका अंदाजा तुम्हें क्यों कर हो ? बहरहाल वो कभी तुमसे शिकायत नहीं करेगी . वो तुम्हारी ख़ुशी में इज़ाफा करने के लिए इस दुनिया में पैदा हुई है . वो तुम्हारे लिए कभी ग़म की बाईस नहीं बनेगी . तुम अगर कल सुबह आ गए तो मेरी ईद होगी . वरना एक बुर्दवार संजीदा मिज़ाज औरत की शान से सब कुछ झेल जाऊंगी . तुम्हारी ख़ुशी मेरी ख़ुशी होगी .
6. ये कैसे कहूं की तुम्हारी कमी महसूस होती है . जब की हर लम्हा, हर लहज़ा तुम मेरे ही पास हो . दूर होकर तो और भी प्यारे हो जाते हो .
७. कितनी खुश रहती हूँ, और कितनी नाजां . मुझे किसी ने चाहा है, और मैं किसी को चाहना सीख रही हूँ .
८. आओ मेरे क़रीब, प्यार कर लूं तुम्हें .
९. क्या सोने का इरादा है तुम्हारा ? मेरी क़लम कुछ ख़ामोशी की हिदायत करती हुई मालूम पड़ रही है . सो जाओ मैं तुम्हें बैठी हुई यूं ही थपकियाँ देती रहूंगी .
१०. मुझे मालूम है की तुम ख़त में देर इसलिए करते हो, ताकि तल्ख़ असरात (चिंताएं) से बचाए रखो, जो तुम पर वक्तन-फवक्तन तारी हो जाते हैं . दोस्त, अगर शिकायत है तो इस बात की, के तुमने मुझे इस क़दर न-अहल (अयोग्य) और नाज़ुक कियों समझा है की मैं में तुम्हारे ग़म को बाँट न सकूंगी . आओ तुम्हें प्यार कर लूं . चेहरा इतना उदास क्यों है ? कोई बात भी हुई . ज़रा-२ सी बात पर उलझते रहते हो .
११. तुमने अपने घर को ग़रीब घर लिखा है . अख्तर ! वो घर अब हम दोनों का है, और मैं उस घर को महलों से भी ऊंचा समझती हूँ .
१२. जी चाहता है की बातें किये जाऊं तुमसे . गो की ये जानती हूँ की फ़िज़ूल बक रही हूँ .
१३. बहूत सा प्यार, कल तक के लिए .
१४. मेरी मुहब्बत पर ऐतमाद करना कब सीखोगे अख्तर . वो लम्हे मेरे लिए एक ज़िन्दगी के नहीं, मौत के होते हैं, जब तुम अपने को मुझसे अलग कर लेते हो . तुम्हारी खुशियाँ मेरी हैं, फिर तुम्हारे ग़म मेरे भी तो हुए न .
सफ़िया की इस जहाँ से रुखसती के बाद निसार टूट से गए थे . ज़िन्दगी के नए मायने ढूँढते-२ एक बरस गुज़र गया . ऐसे ही एक रोज़ एक बरस के बाद निसार जब सफ़िया की मज़ार पर पहुंचे तो सफ़िया की नफ्सियाती हालत उनके हलक़ से नज़्म की शक्ल में कुछ इस क़दर बयाँ हुई, के पढ़ते हुए कलेजा मुंह को आता है -
कितने दिन में आये हो साथी !
मेरे सोते भाग जगाने
मुझसे अलग, इस एक बरस में
क्या-क्या बीती तुम पे न जाने
देखो कितने थक से गए हो
कितनी थकन आँखों में घुली है
आओ तुम्हारे वास्ते साथी
अब भी मेरी आग़ोश खुली है
चुप हो क्यों क्या सोच रहे हो
आओ सब कुछ आज भुला दो
आओ अपने प्यार से साथी
फिर से मुझे इक बार जला दो
इतने दिन के बाद कहीं तुम
आये हो साजन मेरे द्वारे
आज अँधेरे अंगना मोरे
नाच उठे हैं चाँद सितारे
देखो कितनी रात हसीं है
जैसे मेरा प्यार खिला हो
आज तो ऐसी जोत है जैसे
चाँद ज़मीन से आन मिला हो
बोलो साथी कुछ तो बोलो
कब तक आखिर आह भरूँगी
तुमने मुझ पर नाज़ किये हैं
आज मैं तुमसे नाज़ करूंगी
आओ मैं तुमसे रूठ सी जाऊं
आओ मुझे तुम हंस के मना लो
मुझ में सचमुच जान नहीं है
आओ मुझे हाथों में उठा लो
तुमको मेरा ग़म है साथी
कैसे अब इस ग़म को भुलाऊँ
अपना खोया जीवन बोलो
आज कहाँ से ढूंढ के लाऊँ
ये न समझना मैंने तुमसे
जान के यूं मुंह मोड़ लिया है
ये न समझना मैंने तुमसे
दिल का नाता तोड़ लिया है
ये न समझना मैंने तुमसे
आज किया है कोई बहाना
दुनिया मुझसे रूठ चुकी है
साथी ! तुम भी रूठ न जाना
आज भी साजन मैं हूँ तुम्हारी
आज भी तुम हो मेरे अपने
आज भी इन आँखों में बसे हैं
प्यार के अनमिट गहरे सपने
दिल की धड़कन डूब भी जाये
दिल की सदाएं थक न सकेंगी
मिट भी जाऊं फिर भी तुमसे
मेरी वफायें थक न सकेंगी
ये तो पूछो मुझसे छुटकर
तेरे दिल पर क्या-२ गुजरी
तुम बिन मेरी नाव तो साजन
ऐसी डूबी फिर न उभरी
इक तुम्हारा प्यार बचा है
वर्ना सब कुछ लुट सा गया है
एक मुसलसल रात की जिसमें
आज मेरा दम घुट सा गया है
आज तुम्हारा रस्ता तकते
मैंने पूरा साल बिताया
कितने तूफानों की ज़द पर
मैंने अपना दीप जलाया
तुम बिन सारे मौसम बीते
आये झोंके सर्द हवा के
नर्म गुलाबी जाड़े गुज़रे
मेरे दिल में आग लगाके
बोलो साथी कुछ तो बोलो
कुछ तो दिल की बात बताओ
आज भी मुझसे दूर रहोगे
आओ मेरे नज़दीक तो आओ
अच्छा मेरा ग़म न भुलाओ
मेरा ग़म हर ग़म में समो लो
इससे अच्छी बात न होगी
ये तो तुम्हे मंज़ूर है बोलो
अबसे अपना दिल न दुखाना
मेरे लिए फ़रियाद न करना
मुझसे कुछ भी प्यार अगर है
मेरा ग़म बर्बाद न करना
मेरे ग़म को मेरे शायर !
अपने जवाँ गीतों में रचा लो
मेरे ग़म को मेरे शायर !
सारे जग की आग बना लो
मेरे ग़म की आंच से साथी
चौंक उठेगा अज़्म तुम्हारा
बात तो जब है लाखों दिलों को
छु ले अपने प्यार का धारा
मैं जो तुम्हारे साथ नहीं हूँ
दिल को मत मायूस करो तुम
तुम हो तनहा, तुम हो अकेले
ऐसा क्यों महसूस करो तुम
आज हमारे लाखों साथी
साथी ! हिम्मत हार न जाओ
आज करोड़ों हाथ बढ़ेंगे
एक ज़रा तुम हाथ बढ़ाना
अच्छा अब तो हंस दो साथी
वरना देखो रो सी पडूँगी
बोलो साथी कुछ तो बोलो
आज मैं सचमुच तुम से लडूंगी
जाग उठी लो दुनिया मेरी
आई हंसी वो लब पे तुम्हारे
देखो-२ मेरी जानिब
दौड़ पड़े हैं चाँद सितारे
आओ जाती रात है साथी
प्यार तुम्हारा दिल में भर लूं
आओ तुम्हारी गोद में साजन
थक कर आँखें बंद सी कर लूं
देखो ! कितने काम पड़े हैं
अच्छा, अब मत देर करो तुम
कैसे जमकर रह से गए हो
इतना मत अंधेर करो तुम
अच्छा साथी जाओ सीधारो
अब की इतने दिन न लगाना
प्यासी आँखें राह तकेंगी
साजन जल्दी लौट के आना
लेकिन ठहरो, ठहरो साथी
दिल को ज़रा तैयार तो कर लूं
आओ मेरे परदेसी साजन
आओ में तुमको प्यार तो कर लूं
पेचीदा हालात और सफ़िया से बिछड़ने के ग़म से कुछ संभले तो बहुत बेकारी के बाद बैंक में मैनेजरी कर ली . लेकिन ये निसार का मकाम नहीं था . वो फिल्मों में काम पाने की कोशिशें करते रहे, इस बीच शराब की लत भी लग गयी थी . आखिरकार फिल्मों में काम मिलने लगा और ख़दीजा से दूसरा ब्याह करके अब इनकी ज़िन्दगी कुछ पटड़ी पर लौटने लगी थी . पहले से बहुत खुश और तबियत में नज़र आने लगे . १९५८ में भोपाल में एक मुशायरा हुआ, जहाँ निसार, ख़दीजा के साथ शिरक़त करने पहुंचे . हाज़रीन की फरमाईश पर 'ख़ाक-ऐ-दिल' नज़्म भी सुनाई जिसे सुन कर ख़दीजा अपने ही में सिमट सी गयी . ज़ाहिर है सफ़िया के लिए लिखी नज़्म सुन कर ख़दीजा को ग़ैर-मह्फूज़ी महसूस हुई हो . मौके की नज़ाक़त को समझते हुए निसार ने बगैर वक़्त ज़ाया किये ख़दीजा से कहा, "ख़दीजा, मैं तुम से बेहद मुहब्बत करता हूँ, मगर सफ़िया को भुला पाना मेरे लिए न-मुमकिन है ." ख़दीजा, ख़ुदा जाने इस बात से मुतमईन हुयी के नहीं, पर निसार ने अगले ही दिन के मुशायरे में ख़दीजा के लिए नज़्म पढ़ी, जिसे सुन ख़दीजा का रोम-रोम खिल उठा .
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
आज क्यों चाँद सितारों पे नज़र जाएगी
क्या रखा है जो बहारों पे नज़र जाएगी
तू की खुद माहाव्शान-ऐ-चमन अन्दाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
एक तुगियान-ऐ-तरब है मेरे काशाने में
एक सनम आ ही गया दिल के सनमखाने में
शहर में इक क़यामत तेरे इकदाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
दिल की धड़कन को इशारे की ज़रुरत न रही
किसी रंगीन नजारों की ज़रुरत न रही
रंग नज़रों में तेरे आरीज़-ऐ-गुलफ़ाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
तेरी पलकों के झपकने की अदा काफ़ी है
तेरी झुकती हुयी आँखों का नशा काफ़ी है
अब न शीशे से ग़रज़ है न मय-ओ-जाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
महकी-२ तेरी ज़ुल्फों की घटा छाई है
तू मुझे कौन सी मंजिल पे उड़ा लाई है
ज़िन्दगी दूर बहुत शोरिश-ऐ-आलाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
दिल में उतरी चली जाती हैं निगाहें तेरी
मुझको हलके में लिए जाती है बाहें तेरी
इक उजाला सा मेरे गिर्द सर-ऐ-शाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
तेरे अहसास पे दुनिया की लताफ़त सदक़े
तेरी बदनाम वफ़ा पर मेरी शौहरत सदक़े
इक ख़ुशी तुझको मेरे प्यार क़े इलज़ाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
दिल में इक शौक़ का तूफ़ान बरपा रहने दे
अपना सर तू मेरे शाने पे झुका रहने दे
इश्क बेताब सही हुस्न तो आराम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
जाँ निसार तरक्की-पसंद अदीबों की अंजुमन के मेंबर थे और १९४८-४९ में इसके सदर भी रह चुके थे . कम्युनिस्ट होने की वजह से उन्हें भोपाल के हामिदिया सरकारी कॉलेज के उर्दू-फ़ारसी इदारे के ब-इज्ज़त ओहदे से भी हाथ धोना पड़ा . निसार भी दुसरे तरक्की-पसंद अदीबों की मानिंद बोल्शेविक रूस, लेनिन, स्टालिन के सना-ख्वाँ रहे जो आज़ाद हिंदुस्तान को हुकुमत-ऐ-जम्हूरियत नहीं मानते थे . इन्होने भी फ़ैज़, सरदार जाफ़री, मख़मूर जालंधरी, मसूद हुसैन, फ़िक्र तौंसवी, जोश महिलाबादी और फ़िराक गोरखपुरी की मानिंद हिन्दुस्तानी हुकूमत को एक धोका और फरेब माना.
मैं तो यूं खुश था के आज़ाद हुआ मेरा वतन
मैं तो यूं खुस था के छुटा वो ग़ुलामी का गहन
अपना हर रंग धनक खाख पे बरसा देगी
कल ज़मीन हिंद के खुर्शीद को शर्मा देगी
क्या खबर थी की नज़र खुद है नज़ारों का तिलिस्म
रात की रात है ये चाँद-सितारों का तिलिस्म
टूट जायेगा कोई दम में ये अफ़सून-ऐ-बहार
नोके हर खार से टपकेगा अभी खून-ऐ-बहार
क्या
खबर थी के फ़क़त नाम है आजादी का
ये भी एक तर्ज़ है सैयाद की सैयादी का.
ये भी एक तर्ज़ है सैयाद की सैयादी का.
2 comments:
संग्रहणीय आलेख... अनछुए पहलुओं से रूबरू होने का मौका मिला.. शुक्रिया।
shukriyaa
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