हलफ़नामा
- असद ज़ैदी
नहीं ऐसा कभी नहीं हुआ
आदमी और कबूतर ने एक दूसरे को नहीं देखा
औरतों ने शून्य को नहीं देखा
कोई द्रव यहाँ बहा नहीं...
नहीं कोई बच्चा यहाँ
सरकंडे की तलवार लेकर
मुर्गी के पीछे नहीं भागा
बंदरों के काफिलों ने कमान मुख्यालय पर डेरा नहीं डाला
मैंने सारे लालच सारे शोर के बावजूद केबल कनेक्शन
नहीं लगवाया
चचा के मिसरों को दोहराना नहीं भूला
नहीं बहुत सी प्रजातियों को मैंने नहीं जाना जो सुनना न चाहा
सुना नहीं,
गोया बहुत कुछ मेरे लिए नापैद था
नहीं पहिया कभी टेढा नहीं हुआ
नहीं बराबरी की बात कभी हुयी ही नहीं
{हो सकती भी न थी }
उर्दू कोई ज़बान ही न थी
अमीर खानी कोई चाल ही न थी
मीर बाक़ी ने बनवाई जो
कोई वह मस्जिद ही न थी
नहीं तुम्हारी आंखों में
कभी कोई फरेब ही न था
1 comment:
बहुत बढिया रचना
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