Saturday, January 26, 2013

हम बंदर से भी ज़्यादा बंदर, बिल्ली से भी ज़्यादा बिल्ली



रास्ते

-आलोक धन्वा 

घरों के भीतर से जाते थे हमारे रास्‍ते
इतने बड़े आँगन
हर ओर बरामदे ही बरामदे
जिनके दरवाज़े खुलते थे गली में
उधर से धूप आती थी दिन के अंत तक

और वे पेड़
जो छतों से घिरे हुए थे इस तरह कि
उन पेड़ों पर चढ़कर
किसी भी छत पर उतर जाते

थे जब हम बंदर से भी ज़्यादा  बंदर
बिल्ली से भी ज़्यादा बिल्ली 

हम थे कल गलियों में
बिजली के पोल को
पत्थर से बजाते हुए

1 comment:

Arun sathi said...

सच तो है बंदर थे तभी आदमियत थी..