परचम
-कुमार अम्बुज
हर चीज
इशारा करती है
तालाब के
किनारे अँधेरी झाड़ियों में चमकते हैं जुगनू
दुर्दिनों
के किनारे शब्द
मुझे प्यास
लग आयी है और यह सपना नहीं है
जैसे पेड़
की यह छाँह मंजिल नहीं है
एक आदमी उधर
सूर्यास्त की तरफ जा रहा है
वह भी इस
जीवन में यहॉं तक चलकर ही आया है
यह समाज जो
आखिरकार एक दिन आज़ाद होगा
उसकी
संभावना मरते हुए आदमी की आँखों में है
मृत्यु
असफलता का कोई पैमाना नहीं है
वहाँ एक फूल
खिला हुआ है अकेला
कोई उसे छू
भी नहीं रहा है
किसी दुपहरी
में वह झर जाएगा
लेकिन देखो
वह खिला हुआ है
एक पत्थर भी
वहाँ किसी की प्रतीक्षा में है
सिर्फ
संपत्तियाँ उत्तराधिकार में नहीं मिलेंगी
गलतियों का
हिसाब भी हिस्से में आएगा
यह जीवन है धोखेबाज पर भी मुझे विश्वास करना होगा
निराशाऍं
अपनी गतिशीलता में आशाऍं है
मैं रोज
परास्त होता हूँ
इस बात के
कम से कम बीस अर्थ हैं
वैसे भी
एक-दो अर्थ देकर
टिप्पणीकार
काफी कुछ नुकसान पहुँचा चुके हैं
गिनती
असंख्य को संख्या में न्यून करती चली जाती हैं
सतह से जो
चमकता है वह परावर्तन है
उसके नीचे
कितना कुछ है अपार
शांत चपल और भविष्य से लबालब भरा हुआ
2 comments:
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति,आभार महोदय.
bahut sunder, marmik! pahale bhi padhi thi, ab bhi marmik lagi!
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