Saturday, July 6, 2013

सोचते हैं जब आपस में ही बंटना है सब कुछ


असाहित्य

-संजय चतुर्वेदी

गणित ही फलित को बताता है
बड़ा काम चल रहा है
अभी से सब जानते हैं
दो हज़ार चार, पांच, दस तक
किसे क्या मिलने वाला है
चीज़ें सरल
और प्रक्रिया इतनी साफ़ हो गयी है
अब किसी को कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए
कम से कम आपस में तो नहीं
जिन्हें हो सकती है उन्हें बाहर कर दिया गया है
को दो हज़ार सात में जिसके लिए इंतजाम है
उसे कह दिया गया है कि दो हज़ार पांच में छपवा लो
कुछ है नहीं तो भी कुछ भी छपवा लो,
पिछलों की हालत नहीं देखी
दो हज़ार में जिसे मिला
उसने अट्ठानवे में छपवाई हड़बड़ाहट में
अब वह लगा है गिरोहमित्रों के लिए
हो भी चुका है आधा काम तो
कहाँ रहते हैं आप लोग
अब हम भी मनुष्य हैं
देखते हैं तो बुरा नहीं लगता क्या हमको
हैं तो ये सब असाहित्यिक
सोचते हैं जब आपस में ही बंटना है सब कुछ
क्यों न इसे और पारदर्शी बना दें
अभी से दो हज़ार बीस तक की छुट्टी कर दी जाय
तदनुकूल प्रकाशकों से लेन-देन हो जाय
एक बार में निपट जाएँ सारी खुजलियाँ

ठीक है कुछ बड़ा नहीं लिख सके
लेकिन जब यह तय हो ही गया है
कि हम सब महान हैं
तो लिखने का इंतज़ार क्यों किया जाय
टैम ख़राब होता है
दिया जाय
इस दिशा में कुछ पहल भी हुई है
उन चीज़ों को ‘साहित्यिक’ गतिविधि कहा जाने लगा है
जिनके आयोजनों में
बिना कोई पहुँच वाला
पहुँच ही नहीं सकता
और इस तरह बचा रहे हैं
तमाम श्रम, ऊर्जा और वक़्त
और कम होते हुए भी कुछ हज़ार लोगों को बेवकूफ़ होने से.

('कल के लिए' के अक्टूबर २००४-मार्च २००५ अंक में प्रकाशित)

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