Saturday, July 6, 2013

पहन के जिस्म भटकतीं मजाज़ की नज़्में – २ - शलभ श्रीराम सिंह


२.

पहन      के        जिस्म
भटकतीं मजाज़ की नज़्में
यहाँ भी मुझको मिली हैं गुज़िश्ता दौरों में!
किसी के साथ थी अज़रा किसी के सलमा थी
मगर जो बात थी नूरा में न थी औरों में!!

व’ एक नर्स जो शमए-हया थी शायर की
जो उसके परदे-तखय्युल में झिलमिलाई थी!
व’ कली जो जवाब में हसीं हरकत की
हंसी नहीं थी सिर्फ़ खुल के खिलखिलाई थी!!

मैं उसकी राहे-तलब में भटक रहा था अभी
कि मिली वनलता सेनों की एक और क़तार!
ठमक के, रुक के मुझे सोचना पड़ा था यहाँ
य’ कोई ख़ाब है कि पैरहनशुदा है बहार!!

ग़ज़ालचश्म ज़ुल्फ़ आसमां की हसरत-सी
हरेक ढलती हुई ख़ुद में चल रही थी यहाँ!
हरेक शक्ल बहरहाल थी हमशक्ल मगर
शमअ-सी दिन की शुआओं में जल रही थी यहाँ!!

ग़ज़ब की रोशनी रोशन दिलों को करती हुई
चिराग़ बन के चल रही थीं आत्माएं यहाँ!
हुदूदे-इल्मो-फ़न में कहकशां थीं बन के खड़ी
हवा में शायर-ए-बंगाल की सदाएं यहाँ!!

मैं परीशान दिमाग़ी की हदों में हूँ खड़ा
कितना पुरआब जुनूं साज़ नज़ारा है अभी!
ऐ मेरी प्यारी बहन! प्यार की कविता आ आ
वनलता सेन को नूरा ने पुकारा है अभी!!

उसकी आवाज़ से इस वक़्त ग़ज़लज़न है समां
अब कोई साज़ मिलाओ तो मिल नहीं सकता!
य’ फूल है जो खिला पत्थरों की छाती पर
सिवाय दिल के कहीं और खिल नहीं सकता !!

मजाज़ों-जीवनानन्दों से कालिदासों तक
हाफ़िज़ों-हालियों-मीरों का एक रिश्ता है!
छिड़े न जिक्र-ए-घनानंद-व-ग़ालिब क्यों कर
ख़ुदा है प्यार का कोई कोई फ़रिश्ता है!!

नवा-ए-वक़्त मुझे देखती है हैरत से
कि जैसे सिह्र के संगम पे आ गया हूँ!
वो शाहकार जो सदियों की निगाह में हैं अभी
उन्हें ज़मीन पे यहाँ आके पा गया हूँ मैं!!


(सिह्र – जादू)

No comments: