संगीत के आसपास कुछ कविताएं – ७
अश्विनी
भिड़े का भीमपलासी
-शिवप्रसाद
जोशी
एक
कोना फूटता है अकार का
सहसा
आवाज़ की परछाइयां
एक
एक कर गुज़र जाती हैं
वि.....र.....ह.......
के
झुटपुटे में
आवाज़ों
के दरम्यान हैं आवाज़ें उनके भी दरम्यान है दर्द
एक
धंसाव व्यथा का
इंतज़ार
जबसे....गए...
कई
पुकारों में बार बार डोलती है धरती
धीरे
धीरे कांपता हुआ आकाश
हवाएं
धंसी हुई आवाज़ों में
और
सवाल
सुध....मोरी...
भुला
दिया जाना कहां आसान है
पृथ्वियां
पास आ जाती हैं
अपनी
मौलिक ध्वनियों को सुनने के लिए
अतल
अंधकार से प्रकट होता है दुख
अपनी
किरचियां गिराता हुआ
बहुत
दूर तक उनकी चमक बिखरी रहती है बहुत देर तक
सुगन....विचारो...विरह
यह
तपस्या की जगह है
प्राचीन
ऋषि मुनि हमारे उस्ताद
अमीर
ख़ान की तपस्थली के कितने पास
यह
वेदना और झूम का ब्रह्मांड
एक
उन्मुक्त गान
उलझता
और खुलता
और
उलझता और सुलझता
तदियन
रे....तदियन रे....
तन
धीम...तनन धीम....तनन धीम..
आख़िरी
तराना
सुधबुध
में लौटते
यही
था.
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