Wednesday, September 11, 2013


फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म, आवाज़ मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ की-

मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग
मैंने समझा था के तू है तो दरख़्शां  है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का  झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में  बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है

तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये
यूँ ना था, मैंने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें हैं और भी हैं वस्ल की राहत  के सिवा

अनगिनत सदियों से तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-किमख़्वाब  में बुनवाये हुए
जा-ब-जा  बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों  से
पीप  बहती हुई गलते हुए नासूरों  से

लौट जाती है इधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग 

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