Wednesday, April 22, 2009

सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे: इक़बाल बानो

इक़बाल बानो की मृत्यु पर कल मैंने एक पोस्ट लगाई थी. 

असल में कबाड़ख़ाने पर उन पर पहले से प्रकाशित एक पोस्ट को दुबारा लगाया था. आज शाम को हमारे आदरणीय श्री असद ज़ैदी ने फ़ोन पर इस बाबत मेरी एक ग़लती को रेखांकित करते हुए स्व. इक़बाल बानो के बारे में कुछेक बातें बतलाईं और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की उस नज़्म का ज़िक्र भी किया जिसे सुनाते हुए वे अपने सुनने वालों को रुला दिया करती थीं. 

 इक़बाल बानो पर एक विस्तृत पोस्ट लिखनी ही थी सो आज ही सही. बड़े भाई असद ज़ैदी की नज़्र. 

 इक़बाल बानो का ताल्लुक रोहतक से था. बचपन से ही उनके भीतर संगीत की प्रतिभा थी जिसे उनके पिता के एक हिन्दू मित्र ने पहचाना और उनकी संगीत शिक्षा का रास्ता आसान बनाया. इन साहब ने इक़बाल बानो के पिता से कहा: "बेटियां तो मेरी भी अच्छा गा लेती हैं पर इक़बाल को गायन का आशीर्वाद मिला हुआ है. संगीत की तालीम दी जाए तो वह बहुत नाम कमाएगी." 

 मित्र के इसरार पर उनकी संगीत शिक्षा का क्रम दिल्ली में शुरू कराया गया - दिल्ली घराने के उस्ताद चांद ख़ान की शागिर्दी में. इक़बाल बानो ने दादरा और ठुमरी सीखना शुरू किया. उस्ताद की सिफ़ारिश पर ही बाद में उन्हें ऑल इन्डिया रेडियो के लिए गाने के मौके मिले. वे १९५० के आसपास पाकिस्तान चली गईं जहां १९५२ में मुल्तान के इलाके के एक ज़मींदार ने इस वायदे पर सत्रह साल की इक़बाल बानो से निकाह रचा लिया कि उनकी संगीत यात्रा पर कोई रोक नहीं आने दी जाएगी. 

यह वायदा उनके पति ने १९८० तक अपने इन्तकाल तक बाकायदा निभाया. पति की मृत्यु के बाद वे लाहौर आ गईं. ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल के लिए उनकी आवाज़ बेहद उपयुक्त थी और उन्होंने अपने जीवन काल में एक से एक बेहतरीन प्रस्तुतियां दीं. 

 मरहूम इन्कलाबी शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की नज़्म "हम देखेंगे" की रेन्डरिंग को उनके गायन कैरियर का सबसे अहम मरहला माना जाता है. ज़िया उल हक़ के शासन के चरम के समय लाहौर के फ़ैज़ फ़ेस्टीवल में उन्होंने हजारों की भीड़ के आगे इसे गाया था. इस प्रस्तुति ने ख़ासी हलचल पैदा की थी और सैनिक शासन ने इस वजह से उन्हें काफ़ी परेशान भी किया. लेकिन उनके इस कारनामे ने उन्हें पाकिस्तान में बहुत ज़्यादा लोकप्रिय बना दिया था. 

 २००३ के बाद से उनकी तबीयत नासाज़ चल रही थी और उन्होंने महफ़िलों में गाना तकरीबन बन्द कर दिया. २१ अप्रैल २००९ को उनका देहान्त हो गया. फ़ैज़ साहब की इस नज़्म के इक़बाल बानो द्वारा गाये जाने के पीछे यह विख्यात है कि ख़ुद फ़ैज़ साहब इसे उनकी आवाज़ में सुनकर रो दिये थे. 

 ख़ास तौर पर आदरणीय असद ज़ैदी जी की फ़रमाइश पर प्रस्तुत है यह अलौकिक, एक्सक्लूसिव रचना:
   

 हम देखेंगे लाजिम है कि हम भी देखेंगे वो दिन कि जिसका वादा है जो लौह-ए-अजल में लिखा है जब जुल्म ए सितम के कोह-ए-गरां रुई की तरह उड़ जाएँगे हम महकूमों के पाँव तले जब धरती धड़ धड़ धड़केगी और अहल-ए-हिकम के सर ऊपर जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी हम देखेंगे जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएंगे हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाए जाएंगे सब ताज उछाले जाएंगे सब तख्त गिराए जाएंगे बस नाम रहेगा अल्लाह का जो ग़ायब भी है हाज़िर भी जो नाज़िर भी है मन्ज़र भी उट्ठेगा अनल - हक़ का नारा जो मैं भी हूं और तुम भी हो और राज करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा जो मैं भी हूँ और तुम भी हो (यहां से डाउनलोड करें: http://www.divshare.com/download/7170033-48d)

10 comments:

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

इक़बाल बानो की मृत्यु पर जी यही कहेँगेँ की उनका सँगीत अमर रहेगा ...उन्हेँ श्रध्धाँजलि हर कवि या गज़लकार की लिखी हुई चीज़ को जब बढिया गायकी मिल जाती है तब सोने मेँ सुगँध घुल- मिल जाती है ...

Unknown said...

priy ashok pandey ji,
faiz saahab ki is kaaljayi nazm ko prastut karne & iqbaal baano ki baabat itni bhaavbheeni & revealing post likhane ke liye aapke prati jitna bhi shukraguzaar hua jaaye, kam hai !
---pankaj chaturvedi
kanpur

P.N. Subramanian said...

इकबाल बनो जी को हमारी श्रद्धांजलि. हमें उनके जीवन के बारे में बताने के लिए आभार. "हम भी तो खड़े हैं राहों में" से हम उन्हें जानते हैं और पसंद करते रहे.

एस. बी. सिंह said...

अशोक भाई इकबाल बानो जी की गायी फैज़ की यह नज़्म मैंने पिछली दीपावली पर पोस्ट की थी क्या पता था वह इतनी जल्दीहमें छोड कर चल देंगी।वे हमारे दिलों में हमेशा अमर रहेंगी।

संगीता पुरी said...

अच्‍छी जानकारी दी आपने .. हमारी भी श्रद्धांजलि उन्‍हें।

Udan Tashtari said...

वाह!! रचना प्रस्तुति का कितना आभार कहें-आनन्द आ गया सुन कर. डूब के सुना!!!

मुनीश ( munish ) said...

Im not competent enough to comment on singing. About content,however, i should say that it showz disillusionment of Faiz with the order of the day and im sure he was full of regret for his decision to support the idea of Pakistan--the biggest political blunder of all times, the price for which is to be paid sooner or later by whole world.
My tributes to Bano bee.

Unknown said...

इक़बाल बानो नें मशहूर शायरों की रचनाओं को स्वर देकर उन्हें संगीत प्रेमियों तक पहुँचाया|
उनकी आवाज़ अपनीं ही तरह की ख़ूबसूरत है और अब जब भी सुनी जायेगी तो सोचा जायेगा कि, कलाकार कभी इस दुनिया से जाते नहीं हैं |

Ek ziddi dhun said...

और असद जी की ही हिदायत के मुताबिक रोहतक में कोई कार्यक्रम भी रखा जएगा जल्द

Arvind Mishra said...

यह आवाज कभी भी मिट नहीं सकती ! मेरी भी श्रद्धांजलि !