हिंदी पट्टी का ये भयावह देहात प्रोजेक्ट
शिवप्रसाद जोशी
हिंदी पट्टी में ये हत्या और ख़ून
के दिन हैं. कुछ इस तरह ये दर्दनाक और भीषण और साज़िशी तरीके से सब हो रहा है कि
1992, 93 और 2002 भूलकर 2013 का यूपी दिखता है. 2014 के आम चुनाव में ख़ून से लथपथ
जाता हुआ.
ख़ून की होली का मुहावरा ऐसी ही
किसी बर्बरता से निकला होगा. मक्कार ताक़तें बेगुनाहों का ख़ून बहा रही हैं और एक
दूसरे को ख़ून में रंग रही है. लाशें बिछाई जा रही हैं और गिनतियां की जा रही हैं.
कोई सोच सकता है ऐसा ये देश जहां पीएम पद की उम्मीदवारी के लिए तिलक की रस्म निभाई
जा रही है. खून का तिलक.
हमारा मीडिया घिघियाया हुआ सा एक
कोने में टुकुर टुकुर ताकता हुआ खड़ा था. लगता है उसके हाथ पांव फूले थे या फिर
उसे क्या ये कहा गया कुछ देर तुम किनारे ही रहो. मीडिया की वो नोज़ फ़ॉर द न्यूज़
कहां गई जिसका ख़ूब डंका पीटा जाता है. नाज़ुक रिपोर्टिंग कितने उखड़े हुए और
बेतरतीब और गैर एलर्ट अंदाज़ में की गई. कहते हो हम एक्टिविस्ट नहीं है तो मीडिया
पर्सन तो बनो. कॉरपोरेट दबावों को जर्नलिज़्म कहते हो. मीडिया इथिक्स के झंडाबरदारों
ने चिंता के लिए सुरक्षित ठिकाने खोज लिए हैं. हिंसा और इस बर्बर नंगई के ख़िलाफ़
एकजुट होना तो दूर बोलना ही मानो दूभर हुआ. क्या ऐसा करना संविधान और देश के
सम्मान के ख़िलाफ़ होता. बस करो, रोको, मत
मारो, लौट जाओ की आवाज़ों को खींचकर जैसे बहुत पीछे कहीं 1947 से पहले के किसी
अंधकार में फेंक दिया गया है.
एक अपील नहीं आई है. एक भी अपील
किसी बड़े नेता की किसी भी पार्टी के किसी बड़े नेता की. दंगे रोकने के लिए कोई
बैठक, पंचायत, शांति मार्च नहीं हुआ. देहात को घिनौनेपन में झोंक दिया गया है.
एक देहात में हमारे एक गहरे मित्र
का घर है. वो छुट्टियों में अपनी पत्नी और बच्चे के साथ घर आए हैं. मैं उनकी
ख़ैरियत की कामना करता हूं और चिंतित हूं. वो फंसे हुए गले से कहते हैं कि बहुत
सिलसिलेवार और तैयारी के साथ हमले हो रहे हैं. उनकी आवाज़ में हिंसा के कारणों को
ठीक ठीक समझ पाने और नए ख़तरों को भांप लेने की चिंताएं हैं. और वो हिंदूवादी
जुनून की डगमगाती और चूर छायाओं को देख पा रहे हैं. झपट का घिनौना विस्तार हो रहा
है, क़ब्ज़ों की नई लड़ाइयां धर्म और जाति के विद्वेषों और नफ़रतों से लैस हैं.
एक तरफ़ भूमंडलीय कॉरपोरेट अभियान
और छोटे छोटे स्तरों पर आर्थिक और सामाजिक वर्चस्व पाने के लिए ख़ूरेज़ी. कमज़ोर
तबकों की बेदख़ली के निर्णायक प्रोजेक्ट. यह देहात प्रोजेक्ट है. इसके कार्यकर्ता
आपको दिखते नहीं है. ये एक फुसफुसाती हुई व्यवस्था है.
देहात एक सांप्रदायिक दबंगई के
हवाले हो गया है और हर इलाके में उसका ख़ौफ़ फैला है. मास मीडिया के औजार,
सांप्रदायिक वितृष्णा के नए और घातक हथियार बन गए हैं. फ़ेसबुक नीचताओं का अड्डा
बनाया जा रहा है. सारी भावनाएं व्यर्थ कर मार डालो का हुंकार भर गया है.
कौन रोकेगा इसे. बुराई और हिंसा को
अपलोड करने की ये कैसी विधा हमने पा ली है. हिंसा और नफ़रत का ये कैसा अपलोड है.
ज़ेहन से लेकर फ़ोन और फ़ेसबुक तक.
इसे बस यूं ही कुछ दिन चलेगा के अनैतिक
और अन्यायपूर्ण आलस्य से झटक कर आगे मत बढ़ जाइए. आप ख़ून पर पांव रखते हुए जा रहे
हैं. ... आत्मा तक में ये चिपचिपाहट चली गई
है लोगो. बस करो.
2 comments:
dukhad hai in logon ka dehat tak var kar jana aur public ka is khel me mohra ban jana .
शिव भाई, जीने को जी चाहता है पर इतने लोगों की हत्याओं के बीच लगता है कि हमारा जीना शर्मनाक है।
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