Thursday, January 30, 2014

पूछते पूछते पाटण

बचपन में घरवाले अक्सर कहते थे कि' पूछते पूछते तो आदमी पाटण भी पहुँच जाता है'.मैंने इस कहावत पर कभी गौर नहीं किया.घर से कहा जाता कि जाओ बाज़ार से कोकम के फूल ले आओ,या कि अरंडी का तेल ले आओ तो वाजिब बहाने के तौर पर झट से कह बैठता कि कहाँ मिलता है ये,मुझे नहीं पता.और जवाब आता बुधाणियों की दुकान पर मिल जाएगा.फिर टाला जाता कि नहीं मालूम कहाँ है इनकी दुकान. और फिर वही कहावत-'पूछते पूछते तो लोग पाटण भी पहुँच जाते हैं.'

एकाध बार सोचा था उस वक्त कि ये पाटण कौनसी जगह है और कहाँ है? फिर अपने पाठ्यक्रम में कहीं लिखा याद आता 'पाटलिपुत्र'.पटना.वही हो सकता है.वही, दूर,बिलकुल उस छोर पर,पूरब में.

पर अब जानता हूँ वो पाटण गुजरात का पाटण है.कभी थे इसके भी गर्व भरे दिन.इसकी कीर्ति दूर दूर तक थी और राजस्थान के हमारे इलाके तक पाटण की गौरव-पताका लहराती थी.राजस्थान के रेतीले अरण्य में पाटण नगर तक पहुंचना एक हसरत थी.फिर धीरे धीरे पाटण अपने वैभव को खोता गया.अचानक हुआ ये सब या धीरे धीरे पता नहीं पर इस तक पहुँचने की हसरत बनी रही.सिकुड़ने,सिमटने या ख़त्म होने के बावजूद पाटण एक हसरत के रूप में बना रहा.

पाटण अब एक छोटा सा शहर है.

पिछले साल पूछते पूछते यहाँ पहुँच गया था.कह नहीं सकता कि वहां जाना अपने पुरखों की हसरतों के शहर पहुँचने जैसा था या नहीं पर तात्कालिक वजह थी वहां एक बेहद ख़ास जगह को देखना.और ये जगह थी एक प्राचीन बावड़ी-'राणी नी वाव' यानी 'रानी की बावड़ी'.ये पाटण की एक ज़बरदस्त विरासत है. इसके शानदार अतीत का एक उदाहरण.कुछ फोटुओं में इसे आप भी देखें.







Saturday, January 18, 2014

टिम टिम रास्तों के अक्स - संजय व्यास को बधाई दीजिये

प्रिय  भाई और जोधपुर में रहने वाले श्रेष्ठ कबाड़ी संजय व्यास की किताब जल्द ही छप कर आ रही है. यह सूचना देते हुए मुझे बहुत खुशी और संतोष हो रहा है. संजय भाई को बधाई और किताब की सफलता के लिए शुभकामनाएं.


हिन्द युग्म प्रकाशन से ब्लॉग पर पोस्ट हुई गद्य रचनाओं का किताब के रूप में संग्रह 'टिम टिम रास्तों के अक्स' आने ही वाला है.किताब की ऑनलाइन बुकिंग व खरीद के लिंक्स ये रहे -

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Friday, January 3, 2014

एक पूर्व प्रेमी छिपता है एक हवा में, चिठ्ठियों के भंवर में चक्कर खाता - बेई दाओ की कवितायेँ ५


कल से शुरू कर के

मैं प्रवेश नहीं कर सकता संगीत के भीतर
सिर्फ़ झुका सकता हूँ अपने आप को काले रेकॉर्ड पर घूमने को
समय के एक धुंधले पार्क में घूमने को
बिजली के तय किये गए एक पार्श्व में
कल एक गूढ़ खुशबू निकल आई थी हरेक फूल के भीतर से
कल खोली गयी थीं फोल्डिंग कुर्सियां एक एक कर
हर किसी को बैठने की जगह मुहैया करतीं
बहुत देर से इंतज़ार कर रहे थे रोगी
सर्दियों के दिल को लेकर आओ
जब सोते का पानी और विशाल गोलियां
बन जाते हैं रात के शब्द
जब स्मृति भौंकती है
एक इंद्रधनुष से अभिशप्त होता है कालाबाजार

मेरे पिता के जीवन की लपट एक मटर के दाने जितनी
मैं उनकी प्रतिध्वनि हूँ
मुलाक़ातों के कोने को पलटता
एक पूर्व प्रेमी छिपता है एक हवा में
चिठ्ठियों के भंवर में चक्कर खाता

बीजिंग, , जाम उठाने दो मुझे
अपने लैम्पपोस्टों के नाम
बनाने दो मेरे सफ़ेद बालों को
काले नक़्शे पर अपना रास्ता
जैसे कि एक तूफ़ान आपको उड़ाये लिए जा रहा हो

मैं कतार में खड़ा इंतज़ार करता हूँ जब तक कि
छोटी खिड़की बंद नहीं हो जाती: ओ चमकीले चन्द्रमा
मैं घर जाता हूँ पुनर्मिलन
एक कम होते है
अलविदाओं से

Thursday, January 2, 2014

कंकाल का भुरभुरा सपना अब भी बचा हुआ है - बेई दाओ की कवितायेँ ४

कविता की कला

उस बड़े घर में जिसका मैं हूँ
सिर्फ़ एक मेज़ बच रही है , अथाह
दलदल से घिरी हुई
अलग -अलग कोनों से मुझ पर चमकता है चाँद
कंकाल का भुरभुरा सपना अब भी बचा हुआ है
दूर कहीं ध्वस्त कर दिए गए किसी चबूतरे की तरह,
और सादे पन्ने पर हैं कीचभरे पैरों के निशान
कई वर्षों तक खाना दिया गया था जिस लोमड़ी को
अपनी गुस्सैल फ़र के झटके से मुझे मनाती है और घायल करती है

और वहां हैं आप , ज़ाहिर है, अब भी मेरे सामने
खुशनुमा मौसम की बिजली जो दमकती है आपकी हथेली में
बदलती है लकड़ी में बदलती है राख में

Wednesday, January 1, 2014

जो भी देखता है समय, पाएगा कि वह अचानक बूढ़ा हो गया है - बेई दाओ की कवितायेँ ३


हमेशा ऐसा ही था यह ...

हमेशा ऐसा ही था यह
कि आग है सर्दियों का केंद्र
जब दहक रही होती हैं लकड़ियाँ
सिर्फ़ वही पत्थर जारी रखते हैं अपनी भयंकर चिंघाड़
जो नजदीक आना नहीं चाहते
हिरन के सींग पर बंधी घंटी बंद कर चुकी है बजना
जीवन एक अवसर है
सिर्फ़ एक अवसर
जो भी देखता है समय

पाएगा कि वह अचानक बूढ़ा हो गया है