Tuesday, April 16, 2019

मैं हंसते हंसते दम तोड़ देता अगर मुझे रोना न आता - अमित श्रीवास्तव की कविता

हेनरी रूसो की पेंटिंग 'हॉर्स अटैक्ड बाई अ जगुआर'

अमित श्रीवास्तव की कविता की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह एक साथ अनेक परतों और आयामों पर काम करती जाती है - कई बार ऐसा सायास भी होता है लेकिन अमूमन वह एक नैसर्गिक स्वतःस्फूर्तता से लबरेज होती है. उनकी कविता एकान्तिक नहीं सार्वजनिक सरोकारों की मजबूत पैरोकारी करती हैउसके भीतर न सिर्फ हमारे हमारे समय की विद्रूपतम सच्चाइयों की तरफ हिकारत से देखने का भरपूर हौसला है, वह पढ़ने वाले को भी ऐसा करने का हौसला देती है. 

अमित उत्तराखंड के हल्द्वानी शहर में पुलिस महकमे में तैनात अफसर हैं. उनका एक गद्य संस्मरण के रूप में छपा है और एक कविता संग्रह भी. बहुत जल्द उनकी एकाधिक किताबें आने को हैं. उनका लिखा बहुत सारा इस लिंक पर पढ़ने को मिल सकता है - काफल ट्री में अमित श्रीवास्तव की रचनाएं. 

साहित्य की विभिन्न विधाओं में समान अधिकार से लिखने वाले अमित के पास भाषा की अद्भुत रवानी है और बेहद ऊंचे दर्जे का विशिष्ट ह्यूमर भी जिसका बीते दशकों में हिन्दी साहित्य में दिखाई देना दुर्लभ होता जा रहा है. 

कबाड़खाने में उनकी इस एक्सक्लूसिव कविता से पहले उनका बयान है. और कविता के बाद फुटनोट की शक्ल में एक दूसरा बयान जिसे सन्दर्भ के रूप में भी देखा जा सकता है. जैसा पोस्ट के शुरू में लिखा गया यह कविता भी एक ही समय में अनेक परतों और आयामों पर काम करती जाती है. बजाय उनके बारे में किसी तरह की अतिरिक्त टिप्पणी किये यहाँ यह कहना न होगा अमित अपने पाठक से एक भरपूर सजगता की मांग भी करते हैं.   

कवि का बयान: 

अपनी कविता के बारे में सशंकित रहना एक ख़ास किस्म की चालाक सजगता भी हो सकती है. इस कविता को लेकर मैं सशंकित हूँ. इसका प्रमाण है इसके दो ड्राफ़्ट. बल्कि एक अनंतिम ड्राफ़्ट और दूसरा संशोधित. अमूमन मेरी कविता मुझ तक अकेलीइकहरी आती है. मुझे उसे बार-बार उलटना-पलटना नहीं पड़ता. कभी-कभी किसी आशंका से एकाध पैरहन बदल देता हूँ बस. 

तो इसके पहले ड्राफ़्ट में एक क्षेपक जुड़ा हुआ था. अब नहीं है. कविता क्षेपक के बाद नीचे है.

 

जमूरे 

वस्ताद 

खेल दिखाएगा 

दिखाएगा वस्ताद 

चल पर्दा हटा 

हटा दिया 

चल पर्दा गिरा 

गिरा दिया 

जमूरे 

वस्ताद 

चल नाच के दिखा 

अपने को जमता नहीं वस्ताद 

गा के दिखा 

परदेसी-परदेसी जाना नहीं 

जमूरे सुर में गा 

अपने को सुर लगता नहीं वस्ताद 

चल भग यहां से इत्ता सिखाया पर तू अपने जैसा ही रह गया ...  

यू पिस मी ऑफ अलेक्सा   

अलेक्सा कैन यू हियर मी... 

मैं अपना नाम और तारीख़ भूलने लगा था 

मुझे याद नहीं मैंने कोई वायदा किया था किसी से  मिलने का 

तुम्हारी आँखों में झांक कर मैं अपनी तस्दीक करता था बार-बार 

 

मुझे लिखावट से घिन आती थी अपनी ही 

मेरी आवाज़ पर मेरे ही कान मुझे उमेठ देते थे 

मैं देख रहा था ओवर की आठवीं बॉल और जबकि मुझे किसी बच्ची के बलात्कार के ख़िलाफ़ सड़क पर पुकारा गया था 

 

मैंने चटख रंगों के दुपट्टे डाल लिए थे आंखों पर 

काली चुभन में शीतल आराम के वास्ते 

मुझे एक पल को ऊब होती थी अगले ही पल पेट में मरोड़ 

मैं हंसते हंसते दम तोड़ देता 

अगर मुझे रोना न आता 

...प्लीज़ लेट मी नो माईसेल्फ 

अलेक्सा

 

गिव मी अ ब्रेक फ्रॉम माईसेल्फ... 

मुझे भाषा ने नकार दिया 

नारों ने तोड़ दिए बाजू 

पसीने में भर गई तिरस्कार की बदबू 

लहू घूंट-घूंट कर पी गया मेरा स्व 

मैं अपने नाखून से चेहरे सी रहा था ख़ास उस वक्त जब नमक ने मेरे मुंह पर थूक दिया 

 

उसी वक्त मैंने एक अच्छी कविता की भद्दी पैरोडी में 

'जो होना होता है वो होता हैजैसे फूहड़ शब्दजोड़ लिखेकहे और सुने थे 

अंदर की किसी बेसुध पुकार के बीच ऐसे 

मैंने क्या तो शानदार छुपना सीखा था  

 

कोई एक सफ़ेद चादर सी बिछ गई थी ढांपते हुए पैरहाथपीठकान और शिखा के अग्रतम बिंदु तक

... कैन यू सी मी 

अलेक्सा 

कैन यू सेव मी फ्रॉम माईसेल्फ 

 

मैं दुबारा चिपक गया हेडफोन से 

मैं दुबारा फिसल गया हाथों से 

कल की किसी काली कन्दरा में निकला 

और झापड़ खा कर बैठ गया 

मैं बिस्तर के मुहाने पर खुद पर झुका हुआ था

 

 कैन यू शो मी माई पिक्स 

अलेक्सा 

माई पिक्स विच कैप्चर मी...

मुझे लाश की गंध को अख़बार से बाहर लाना था 

और मैं दुःखी था 

कि तुम बेख़ौफ़ झांक आई थी मेरे निजी क्षणों में और बेलौस बताया था 

मुझे कितना ज़ुखाम है 

किसी अनाम देश के डॉक्टर को जो दवा के हिसाब से मर्ज बेचता था

 

मेरे आगे एक दीवार थी 

दीवार में कोई खिड़की नहीं थी अब एक तस्वीर थी 

मैं देखता था दीवार 

मुझे तस्वीर दिखती थी 

तस्वीर में जितना सच था 

सच उतना ही रह गया था मेरा भी 

और मज़े की बात वो सच सबको पता था

 

मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं अलेक्सा 

तुम बढ़ोगी 

चढ़ोगी सिरों पर सुरीली तान की तरह 

फिर गुज़र जाओगी 

अपने जैसे आए गए तूफ़ान की तरह

मगर मैं 

किसे कौन सा मुँह दिखाऊंगा

 

... सिंग आ सॉन्ग विद रियल वर्ड्स 

अलेक्ज़ा 

कैन यू सिंग आ सॉन्ग विदाउट वर्ड्स

आई रियली वांट टू स्लीप 

अलेक्सा 

प्लीज़ 

डोंट पिस मी ऑफ !! 

फुटनोट:  

सॉन्ग विदाउट वर्ड्सफीलिक्स मेंडेलशन के पियानो पीसेज़ हैं. फीलिक्स मेंडेलशन जर्मनी के पियानो आर्टिस्ट और संगीतकार अपनी क्लासिक कम्पोज़िशन 'सॉन्ग विदाउट वर्ड्सके बारे में खुद क्या कहते हैंयही इस कविता के बारे में मेरा बयान है - 

"अगर आप मुझसे पूछें कि इसे लिखते वक़्त मेरे दिमाग में क्या चल रहा था तो मैं कहूंगा: ठीक यह गीत जैसा वह है. और अगर मेरे मन में इस गीत या इन्हीं में से किसी गीत की बाबत कुछ शब्द होंगे भीतो मैं उन्हें किसी को भी बताना नहीं चाहूँगा क्योंकि उन्हीं शब्दों का दूसरों के लिए वही अर्थ नहीं होता. सिर्फ गीत एक ही सी बात कह सकता हैकिसी एक या दूसरे आदमी में एक सी भावनाएं पैदा कर सकता हैएक भावना जिसे उन्हीं शब्दों की मदद से नहीं कहा जा सकता."    




अमित श्रीवास्तव





2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

लम्बे समयांतराल के बाद पेश एक सुन्दर पोस्ट।

HARSHVARDHAN said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन सूरदास जयंती और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।