प्रतीक्षा पांडेय कानपुर से ताल्लुक रखती हैं. २५ दिसंबर १९९२ की उनकी पैदाइश है और फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर की छात्रा हैं. उनसे मेरा संक्षिप्त परिचय इसी महीने दिल्ली में हुआ था और उनकी बहुआयामी प्रतिभा से उनकी फेसबुक वॉल पर. अपनी इन कविताओं को उन्होंने यहाँ लगाने की अनुमति दी उसके लिए उनका आभार. प्रतीक्षा की इन कविताओं में एक निश्छल नोस्टैल्जिया है और चीज़ों को थामने और उनका मर्म समझने की बेचैन ललक. एक बेहतरीन भविष्य के लिए उन्हें कबाड़खाने की शुभकामनाएं -
जनरलगंज, कानपुर
(१)
गलियों में उलझे पांव,
तारों में उलझी पतंगें,
मकान पर मकान—
बेशर्म
एक दुसरे में झांकते हुए
सफ़ेद,
बैंगनी,
गुलाबी दीवारें वाले.
परदे—
बदरंग
उतारी हुई साड़ियों के,
जैसे पिछ्ली बरसात ने
चुरा लिया हो
उनका सबकुछ.
संगीत—
धुनती हुई रुई
और पान की दुकानों से आ रहे ठहाकों का.
साम्राज्य—
गाय, भैंस,
खच्चर का
यहाँ लोग
आहिस्ता नहीं बोलते
और पैर गोबर में पड़ जाने पर
घबराते नहीं.
यहाँ दुःख अनमोल हैं.
और सुख—
ए-वन हलवाई
ढाई रूपए के समोसों में
भरकर बेचता है.
(२)
जब ट्रेन की खिड़कियों के
एयर टाइट कांच के पार
दिखने लगें गर्त में स्वर्ग खोजते सूअर
और साथ में कुत्ते
अपने घावों को चाटते हुए,
जब दीवारें तब्दील होने लगें
मर्दाना ताक़त बांटने वाले
छोटे-मोटे भगवानों के
इश्तेहारों में,
जब अधनंगे बच्चे भागते हुए दिखें
कभी ढलते हुए सूरज
कभी कटी पतंगों के पीछे,
जब आसमान उठा रखने को
ज़रूरत पड़ने लगे बिलजी के तारों के जालों की,
जब ट्रेन भी
फुर्सत में बीड़ी फूंकते लोगों को देखकर
सुस्त पड़ने लगे,
और अहम
औकात से बड़ा होने लगे,
तब—
एक 'छोटा' शहर
शुरू होता है. (कानपुर पर वीरेन डंगवाल की कवितायेँ कल)
8 comments:
आप तो छा गयीं मोहतरमा! बहुत बहुत शुभकामनायें. :)
bahut hi achhi panktiyan hain.
और सुख—
ए-वन हलवाई
ढाई रूपए के समोसों में
भरकर बेचता है.
bahut sundar
:) बड़ी मस्त कविता है ,सच्ची और सटीक ,वाकई मज़ा आ गया ,बेहतरीन
शब्दों में सारा कानपुर ही दिख गया।
और सुख—
ए-वन हलवाई
ढाई रूपए के समोसों में
भरकर बेचता है.... wah... madam kya hkoob.. baise kanpur me samosa aaj b dhai rupye me milta hai??? :P
Commendable..
मैं कुछ सालों से इन कविताओं का पाठक हूँ. अचानक ताज़गी शुरू होती है कभी कभी, अचानक कभी कभी उदासी को उसके पूरे वुजूद के साथ साकार करने के बाद कोई कहता है ठहरो बात अभी पूरी नहीं हुई.
शुक्रिया अशोक जी.
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