संघर्ष के
स्मारक
अब नींद लेता हूँ भरपूर.
लम्बे संघर्ष के बाद
अब पता है, नहीं मिलेगा इंसाफ़.
अब तो इतना ही काफ़ी है कि ये देह,
संघर्ष के स्मारक, बच जायें.
क्या पता कभी इनमें जान फुंक जाये.
जगह मिली तो करवट ले लेंगे.
तब तक चित चादर तान सोयेंगे.
ठंड बढ़ रही है और अलाव भी धुंध ही पैदा कर रहा
है घना.
1 comment:
आपकी लिखी रचना मंगलवार 06 मई 2014 को लिंक की जाएगी...............
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
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