(जारी)
कॉनी हाम – तो वह कौन सा लम्हा था जब आप
अध्यापन और लेखन अभिनय से अचानक सिनेमा में पहुंच गए?
कादर ख़ान – फिल्म इंडस्ट्री के लोग नियमित रूप से थियेटर देखने आया
करते थे. तो उन्होंने मेरा नाम सुना. उन्होंने मुझे थियेटर के स्टेज पर देखा.
उन्होंने मेरी एक्टिंग देखी, मेरा लेखन देखा और मेरा निर्देशन भी. उन्होंने कहना
शुरू किया “यह बेवकूफ फिल्म इंडस्ट्री में क्यों नहीं आ रहा? इसमें प्रतिभा है.
इसे फिल्म इंडस्ट्री में होना ही चाहिए.” जब मुझे ‘लोकल ट्रेन’ के लिए एक अवार्ड
मिला तो अगले दिन एक निर्माता, कुछ निर्देशक और लेखक मेरे पास आकर बोले “आप
फ़िल्में ज्वाइन क्यों नहीं करते?” मेरे लिए यह एक लतीफे जैसा था. “आप ने एक लेखक
होना चाहिए, आपने एक अभिनेता होना चाहिए. आप कुछ भी कर सकते हैं क्योंकि आपको सब
कुछ आता है.” मैंने फिल्मों में जाने के बारे में कभी नहीं सोचा था क्योंकि उन
दिनों फिल्मों को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था. एक निर्माता रमेश बहल ने कहा
कि वो एक फिल्म बनाने जा रहे हैं ‘जवानी दीवानी’ (१९७२).
“मैं चाहता हूँ आप इसके डायलॉग्स लिखें.”
मैंने जवाब दिया “मुझे नहीं आता डायलॉग लिखना.”
उन्होंने कहा “आप जो कुछ अपने नाटकों के लिए लिखते हैं, उसी
को फिल्मों में डायलॉग्स कहा जाता है.”
सो मैं वहाँ गया और उन्होंने मुझे एक मौका दिया. उन्होंने
कहा कि वे अगले हफ्ते से शूटिंग शुरू करना चाहते हैं. मेरे पास रहने की जगह नहीं
थी. सो मैं क्रॉस मैदान चला गया जहां लोग फुटबॉल खेलते हैं. मैं एक कोने में बैठा
रहा और फुटबॉल मुझे लगती रही. चार घंटे में मैंने स्क्रिप्ट लिख ली.
कॉनी हाम: उर्दू में?
कादर ख़ान: उर्दू में. मैं गया वापस. तो मुझे देखकर वे बौरा से गए. “ये
उल्लू के पठ्ठे को वो सीन समझ में नहीं आया.”
मैं उनके होंठ पढ़ सकता था. वे मेरे बारे में बुरी बातें कह
रहे थे. और मैं बोला “इस उल्लू के पठ्ठे को सब्जेक्ट समझ में आया है, ये उल्लू का
पठ्ठा लिख के लाया है.”
“क्या! इतनी जल्दी! आज ही!”
“मेरी लाइफ ऐसी ही है. जो डिसाइड करता हूँ, उसी दिन कर देता
हूँ. आज ही फैसला हो जाए. अगर आपने मुझे लेना है तो ठीक वरना मुझे जाने दीजिये
क्योंकि मेरे स्टूडेंट्स मेरा इंतज़ार कर रहे हैं.”
तब मैंने अपना सब्जेक्ट उन्हें पढ़कर सुनाया और सीन भी. वे
उछल पड़े. बोले “फिर से!” मैंने तीन या चार बार सुनाया. उन्होंने उसे रेकॉर्ड किया.
और तीन दिन के अन्दर शूटिंग शुरू हो गयी. इस तरह मेरी स्क्रिप्ट ने फिल्म की सूरत
ली. शेड्यूल के हिसाब से फिल्म दस दिन में शुरू होनी थी पर स्क्रिप्ट फाइनल होने
के कारण वह तीन दिन में शुरू हो गयी. शूटिंग के इन दिनों में मुझे अतिरिक्त
पब्लिसिटी मिली. इंडस्ट्री में अफवाह गर्म थी कि एक नया राइटर आया है जो बहुत आमफहम
ज़बान लिखता है. और जिस तरह से वह सीन को नरेट करता है, अभिनेता के लिए परफॉर्म
करना मुश्किल पड़ता है. पहली फिल्म के लिए मुझे 1500 रूपये मिले, जो उस ज़माने के
हिसाब से बड़ी रकम थी क्योंकि मैंने उसके पहले पांच सौ का नोट भी नहीं देखा था. सात
हफ्ते के बाद मैं अपनी संस्था में वापस जाने को तैयार था जब किसी ने आकर मुझसे कहा
“मैं एक प्रोड्यूसर हूँ और एक फिल्म बनाने के बारे में सोच रहा हूँ. मेरी फिल्म का
नाम है ‘खेल खेल में’. ये रहा स्क्रीनप्ले और मैं चाहता हूँ आप इसके डायलॉग्स
लिखें.” उसने मुझे एक खासा मोटा लिफाफा थमाया. उसमें दस हज़ार से ज़्यादा रुपये थे.
मैंने स्क्रिप्ट पूरी की. तब मुझे एक ऑफर और मिला.
मनमोहन देसाई का खेतवाड़ी वाला घर: कादर खान की
पाठशाला
चार या छः महीने बाद मुझे मनमोहन देसाई ने बुलवाया.
वे ‘रोटी’ फिल्म बना रहे थे. वे उर्दू लेखकों से बुरी तरह चट चुके थे. उन्होंने
कहा “मुझे इस ज़बान से नफरत है. ये राइटर तमाम मुहावरे, लोकोक्तियों और उपमाओं का
इस्तेमाल करना जानते हैं बस. मुझे अपनी रोज़मर्रा की ज़बान चाहिए. कोई लिख नहीं
सकता.”
तो प्रोड्यूसर ने कहा “कादर खान को ट्राई क्यों नहीं
करते?”
“एक और मुसलमान. मैं ऊब चुका हूँ उनसे. और तुम एक और
नया लेकर आ रहे हो.” वे मुझसे मिले और बोले “देखो मियाँ, मैं बहुत स्ट्रेट बोलता
हूँ. तुम्हारी स्टोरी पसंद आयेगी तुम्हारा डायलाग अच्छा लगेगा तो ठीक है वरना
धक्के मार कर बाहर निकाल दूंगा.” पिछले छः या आठ महीनों में किसी ने मुझसे ऐसे बात
की थी. “अगर अच्छा लगा तो मैं तेरे को लेके गणपति की तरह नाचूँगा.”
उन्होंने मुझे पूरा क्लाइमैक्स नरेट किया. वे खेतवाड़ी
में रहते थे. वह मेरी पाठशाला था. दो या तीन दिन बाद मैं वहाँ गया तो वे गली के
छोकरों के साथ क्रिकेट खेल रहे थे. उन्होंने मुझे देखा और बोले “क्या है?”
“सब्जेक्ट और सीन सुनाने आया हूँ.”
“सुनाने मतलब? लिख के लाया?” उन्होंने क्रिकेट खेलना
छोड़ा और मुझसे बोले “चल झटपट.”
वे मुझे अन्दर ले गए. पहली बार. इतना बड़ा इंसान. पहले
यूं होता था कि सारा क्रू और डायरेक्टर वगैरह से मेरी अच्छी ट्यूनिंग रहती थी.
किसी बड़े प्रोड्यूसर के सामने सीन सुनाने का यह मेरा पहला मौका था. जो भी हो, मेरे
भीतर के अभिनेता ने मेरी बहुत मदद की. सो इसी वजह से अभिनेता, लेखक और अध्यापक इन
तीनों के बीच हमेशा ट्यूनिंग बनी रहती थी. अभिनेता ने मेरी बहुत मदद की. तब राइटर
ने अभिनेता की मदद करना शुरू किया. मैंने सीन सुनाया तो वे उछल पड़े. “दुबारा! फिर
से सुनाओ!” उन्होंने चिल्लाना शुरू किया “जीवन!” जीवन उनकी पत्नी का नाम था. “इधर
आ!”
“कायको बुलाया है?” उन्होंने पूछा.
“सुनो ये क्या लिख के लाया है.”
मैंने फिर दोहराया. उन्होंने रोना शुरू कर दिया. “ये
आदमी ऐसे सीन के लिए छः महीने से मर रहा है. तुमने उस से कहीं ज़्यादा कर दिखाया
है.
वे बोले “फिर से!” मैंने पूरा एपीसोड करीब दस बार
सुनाया. मुझे पता नहीं थे कि उन्होंने टेप पर सब कुछ रेकॉर्ड कर लिया था. फिर वे
अन्दर के कमरे में गए. वे एक छोटा पैनासोनिक टीवी लेकर आये. बोले “ये मेरी ओर से
तोहफा है.” फिर उन्होंने मुझे सोने का एक कड़ा और पच्चीस हज़ार रुपये दिए. “मेरी तरफ
से एक यादगार.” इतने बड़े आदमी थे वो. अगर उन्हें कोई अच्छा लगता था तो उसे दिल से
प्यार करते थे. वे कंजूस आदमी नहीं थे. बड़े दिलेर इंसान थे. उन्होंने तमाम लेखकों
और निर्देशकों को फोन लगाया और बोले “अब तुम सब चेत जाओ. एक आदमी आ गया है जो
तुम्हारी इंडस्ट्री पर राज करने जा रहा है.” वे थोडा सनकी भी थे. उन्होंने लेखकों
से कहा “अपनी कलमें फेंक दो. तुम्हें लिखना नहीं आता.” मुझसे बोले “लिखने के लिए
तुम्हें कितना मिलता है?”
मैंने कहा “पच्चीस हज़ार.”
वे बोले “अब तुम्हारा रेट एक लाख होगा.” इस तरह मैं
एक लाख पाने वाला लेखक बना. मुझे जैसे पहली मंजिल से सौवीं मंजिल पर पहुंचा दिया
गया. सौवें माले से मैंने उड़ान भरी. वहाँ से वापसी का कोई रास्ता नहीं था. मेरे
बगैर वे कोई फिल्म बना ही नहीं पाते थे. मुझे स्क्रीनप्ले पर बहसों, कहानी और
गीतों तक हर चीज़ में वे अपने साथ बिठाते थे.
(जारी)
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