Wednesday, March 18, 2015

स्वघोषित देशनिकाले में अभी बच रहा है बहुत सारा रास्ता - अरुंधती घोष की कविता – 3


आयु

तुम्हारे और मेरे शब्दों के दरम्यान
झूठ उगाने लगते हैं अपनी जड़ें
जानते हो तुम जानती हूँ मैं
ऐसे ही बढ़ती है आयु

जानते हुए भी कि धूप नहीं है
दोपहर को बालकनी में 
तुम रखते हो एक कुर्सी और
मेरी तरह, बैठ जाते हो अपनी बगल में

स्वघोषित देशनिकाले में
अभी बच रहा है बहुत सारा रास्ता 
फूल जाती है तुम्हारी सांस, छुपते हो तुम
मैं भी हटा लेती हूँ निगाह

तुम्हारी नींद में अकस्मात
तुम्हारे हाथ कुछ तलाशने लगते हैं
दो शरीर, ठहरे हुए
समझते हो तुम समझती हूँ मैं

लड़की

उमड़ा हुआ है एक समुन्दर उसकी छातियों पर, छूकर
देखती है लड़की 
जानने को

अपने बिस्तर के अँधेरे में
किस तरह वह छूती है
उस गोपन धारा को,
सुदूर तैर कर जाते
निश्शब्द धमाके

जानने को कि क्या वह डूब सकती है कल्पित वार्तालापों
की उसी ऊष्मा में 

उसकी उँगलियों में बनी रहती है गाढ़े समुद्र की महक. 

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अरुंधती की इन कविताओं को भी पढ़ें:

उसने डुबो लिया है इच्छा-पुरुषों का सारा प्रारब्ध
खोजती रहती हूँ जलावतन कर दिए नाविकों को

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