“मनोज त्रिवेदी युवा हैं, क्रियेटिव हैं, अंग्रेज़ी
के धुँआधार कॉपीराइटर रहे हैं, दिल्ली-मुम्बई में बड़ी
विज्ञापन एजेन्सियों में काम किया है, इन्दौरी हैं, ज़ाहिर है हिन्दी बेहतरीन
बोलते-लिखते हैं. बीते दिनों इन्दौर में किताबों की एक ऐसी सेल लगी जिसमें तौल कर
किताबें बेची जा रहीं थी. मनोज ने उसे एक चित्र के रूप में
लिखा मुझे लगा ये कबाड़ख़ाना पर जाना चाहिये. एक बेहतरीन
डॉक्यूमेंटेशन है.”
-कबाड़ी संजय पटेल ने यह लिख कर मुझे मनोज
त्रिवेदी की यह रचना भेजी है. पेश करता हूँ -
कवि का नोट: ज्ञातव्य है कि पिछले कुछ दिनों शहर में एक पुस्तक
प्रदर्शनी चल रही है, जहाँ किलो के भाव किताबें उपलब्ध है. एक दिन मैं भी टहलते
हुए पहुँच गया. कुछ देर घूमा, देखा और फिर निकल आया...एक वार्तालाप, एक वाकिया, एक फांस दिल में लिए...बड़ी मुश्किल से निकाल पाया हूँ. क्षमा
चाहता हूँ उन 90% ग्राहकों, पाठकों से जिन्होंने घंटों पन्ने पलट-पलट कर अपना 1-2 किलो साहित्य शार्टलिस्ट किया और खरीदा.
ढाई-सौ ग्राम प्रेमचंद
भैया, एक काम कीजिये...
कुछ ढाई-सौ ग्राम के करीब प्रेमचंद ले लीजिये
उसमे फिर कुछ ३५० ग्राम दिनकर मिला दीजिये...
हो गए ना ६०० ग्राम ?
अब आपके मिनिमम एक किलो के लिए ४०० ग्राम
का बंदोबस्त करते हैं...एक मिनट...
हूं... हूं...ओके...ये...ये...१५० ग्राम पु. ल. देशपांडे
या...या...वो लाल मोटी वाली कौन सी है ?
‘मृतुन्जय’ – शिवाजी सावंत सर जी
चलो डालो तगारी में...
यार तुम्हारे तोल-कांटें में कुछ गड़बड़ तो नहीं है !?!
आई मीन पैंदे में सीसा-मोम तो नहीं चिपका रक्खा !!
अमां यह शरद जोशी की मुस्कान को क्या हुआ ?
और महादेवी वर्मा के तो जैसे आंसूं ही सूख गए हैं ??
खैर, तोल के बताइए किलो हुआ या नहीं ?
सर, ९५० ग्राम हुआ है...आ...आप कहें तो
५० ग्राम मस्तराम मिला दूं ?
हूं... हूं...नहीं...उसकी खेप अलग से तोलेंगे...
वैसे आप करते क्या हैं सर ?
बेटे नाम नहीं सुना – आ एम ‘शर्मा’
दी फेमस इंटीरियर डिज़ाइनर ‘सृजन श...र...मा’
चलो, इसी से याद आया
अब आँख बंद करके १०-१२ किलो
माल तोल दो फटाफट...
टॉलस्टॉय, गोर्की और वो पाइप पीता हुआ
छितरे बाल वाला...वो उधर...हाँ वही
अच्छा, मार्क ट्वेन सर...ओके
और हाँ वो रेगजीन की जिल्द वाली
‘कम्पलीट वर्क्स ऑफ़ शेक्सपियर’
साथ में ‘विवेकानंद साहित्य’ के दसों खंड
आफ्टर-आल वी आर इंडियंस !
और सुनो...सुनो...वो क्या कहते हैं...
हाँ...’एनसायक्लोपीडीया ब्रिटानिका’
हूं... हूं...अब ध्यान से सुनो...
ताज़ी...मेरा मतलब है ‘कड़क’, ‘नयी’
दिखनेवाली
चाहे जितनी भी पुरानी हो...‘नेशनल जियोग्राफ़िक’ मैगज़ीन
...समझ गए ?
गुड...ये तो हो गया उस वकील, बिल्डर...ज्वेलर
के शो-केस का काम !
अब...अब...ज़रा एक हेल्प करो बेटा...
...एक सरफिरा शख्स़ है...कलाकार है...
राइटर...क्रेज़ी-टाइप यू नो ?
उसका लिविंग-रूम करना है
साला है...आर्किटेक्ट का...साला
जवान-बुड्ढा टेराकोटा और चाक मिट्टी
ख़ुद अपने हाथ से लीप रहा है...
(भगवान जाने मुझे क्यों जोत लिया)
फिर कभी मांडने बनता है, तो कभी दीवारों पर
‘गुलज़ार’ की नज़्में लिखता है मार्कर पेन से !!
सर्किट यू नो ?
उस के शो-केस के लिए
कुछ ३-४ किलो माल है क्या ?
कुछ रंगीन, कुछ हसीन !!
सर...आपका कुल २१ किलो माल तैयार है...
...कार में रखवा दूं ?
और...जहाँ तक उस राइटर का सवाल है
उसके लिए अपने तराज़ू के दांयी तरफ़ का
डेकोरेटिव माल नहीं, बायीं तरफ़ के ‘बाट’ ले जाओ
अमूमन ऐसे लोग वज़न की तलाश में होते हैं...
- मनोज ‘राही मनवा’ त्रिवेदी
4 comments:
पुरस्कार लौटाने के मौसम में इसे पढ़ना ...... बहुत दुख हुआ ....वो जो लिख गए हैं ॥उनके स्तर तक तो शायद ही कोई पहुँच पाए पर ....... उनका लिखा सहेजना भी मुश्किल होता जा रहा है ..... :-(
नाम कबाड़खाना, सुनकर लगा नहीं की कलम की कारीगिरी से इतनी रंगबिरंगी तस्वीर मिलेगी।अच्छा लगा पढ़कर।
बेहतरीन रचना
सादर आभार...अर्चनाजी, शमेंद्रजी, रीनाजी, संजय पटेल सर...हौसला अफजाई के लिए तहे-दिल से शुक्रिया
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