Tuesday, February 9, 2016

मजाज़ और मजाज़ - 10

चाँद-तारे तोड़ना तो असम्भव था. काश मजाज़ में संघर्षों से लड़ने की ही क्षमता होती. खंजर तोड़ने की बात न सोचकर, अपने इरादों को मज़बूत कर पाते और इन्दर-सभा के सामान फूंकने की कल्पना के बाजे शराबखानों को फूंक देने का दृढ़ संकल्प करते. जहाँ कि अनेक नौजवानों की जवानियाँ बुढापे में बदलती जा राही हैं तो मजाज़ एक आदर्श उपस्थित कर जाते लेकिन मजाज़ की क्रांतिकारी कल्पना केवल शाइराना थी. उसका अमली सुबूत उनकी ज़िंदगी में न था. उनक्जे मंसूबे तो बहुत बुलंद थे पर उनमें अमली शक्ल देने का हौसला न था -


ग़म-ए-आरज़ू का 'हसरत' सबब और क्या बताऊँ
मेरी हिम्मतों की पस्ती मेरे शौक़ की बुलन्दी

हैरत होती है, मजाज़ की जिंदादिली, हाज़िरजवाबी और फिकरेबाजी के किस्से सुनकर कि वह मुसीबतों का पहाड़ उठाये-उठाये भी क्योंकर ऐसे लाजवाब जुमले कह पाता था. व्यथा और कष्ट से भरा जीवन बिताते हुए भी हमेशा खुश दीखते हुए मुसीबतों को मुंह चिढ़ाना, चुभती हुई फब्तियां कसना, अचूक व्यंग्य-बाण छोड़ना मजाज़ का अदना करिश्मा था और तारीफ़ यह कि जिस पर भी फब्ती या फिकरा कसा जाता वह भी बुरा मानने के एवज में मुक्त कंठ से प्रशंसा किये बिना न रहता. उनकी जिंदादिली और हाज़िरजवाबी के कुछ उदाहरण नरेशकुमार 'शाद' द्वारा संकलित 'सुर्ख हाशिये' से यहाँ पेश किये जा रहे हैं - 

1.

"भई मैंने सोचा है अब मुझे शादी कर ही लेनी चाहिए" उर्दू के एक निहायत नामवर और कुहनामश्क़ शाइर ने परेशान सा होकर कहा.

"तो परेशानी की क्या बात है? कर लीजिये." मजाज़ ने मशविरा दिया.

"लेकिन बात ये है कि मैं किसी बेवा से शादी करना चाहता हूँ"

"आप शादी कर लीजिये" मजाज़ ने निहायत संजीदगी से जवाब देते हुए कहा - "बेवा तो वो बेचारी हो ही जाएगी."

2.

किसी जलसे में सरदार जाफरी इक़बाल की शाइरी पर तक़दीर कर रहे थे. दौरान-ए-तक़रीर उधर-इधर की बातों के बाद जब उन्होंने एक दम यह इंकशाफ़ किया कि इक़बाल दरअस्ल इश्तराकी नुक्ते-नज़र के शेर थे तो मजमे में से कोई मरदे-मोमिन चीखते हुए बोला - "जाफरी साहब, आप ये क्या कुफ्र फरमा रहे हैं. शाइर-ए-मशरिक और इश्तराकियत! लाहौल वला - आप अपनी इस खुराफात से इक़बाल की रूह को तकलीफ पहुंचा रहे हैं." और जलसे की पिछली सफों से मजाज़ एक फुलझड़ी की तरह छूटते हुए कहने लगे - "हज़रत! तकलीफ आपकी रूह को पहुँच रही है जिसे आप गलती से इक़बाल की समझ रहे हैं."

3.

राजा महमूदाबाद ने बहुत प्यार से मजाज़ से कहा - "मजाज़, अगर तुम मान लो तो एक बात कहूं!"

मजाज़ ने नम्रतापूर्वक जवाब दिया - "आपका हुक्म सर-आँखों पर. फरमाएं राजा साहब क्या इरशाद है"

"मैं चाहता हूँ कि तुम्हारे लिए दो-सौ रुपये माहवार का वजीफा मुक़र्रर कर दूं."

"बड़ा करम है हुज़ूर का"

"लेकिन तुम ख़ुदा के वास्ते ये शराब पीना छोड़ दो."

"शराब पीना छोड़ दूं?" मजाज़ ने निहायत हैरानी और बेचारगी से राजा साहब को देखते हुए कहा - "फिर आपके दो सौ रुपये हर माह मेरे किस काम आएँगे?"

(जारी)  

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