(पिछली क़िस्त से आगे)
इसरारुल
हक़ ‘मजाज़’ उत्तर प्रदेश के बाराबंकी ज़िले के रुदौली क़स्बे में 1909 में जन्मे थे.
उनके वंश का ताल्लुक अजमेर के ख्वाज़ा मुहीउद्दीन चिश्ती के गुरू ख्वाज़ा उस्मान
हारूनी तक पहुँचता है. मजाज़ के पिता चौधरी सिराजुलहक़ लखनऊ के रजिस्ट्रेशन
डिपार्टमेंट में मुलाजिम थे. अपने पिता के पास रहते हुए मजाज़ ने लखनऊ से मैट्रिक पास
किया. उसके बाद आगरे से एफ़.ए. और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से बी.ए. किया.
दिल्ली
में जब रेडियो डिपार्टमेंट खुला तो मजाज़ 1935 में अलीगढ़ से दिल्ली चले आये. वहां
उन्होंने करीब दो साल तक रेडियो के उर्दू पत्र ‘आवाज़’ का संपादन किया, लेकिन
डिपार्टमेंट के तत्कालीन सर्वेसर्वा बुख़ारी भाइयों की दूषित मनोवृत्ति और तानाशाही
स्वभाव के कारण मजाज़ वहां ज्यादा टिक न सके. रेडियो से मुलाज़मत छूटने पर मजाज़ को
मानसिक क्लेश पहुंचा जिसका आभास इस नज़्म से हो जाता है -
रुख़सत ऐ दिल्ली, तिरी महफ़िल से अब जाता हूँ मैं
नौहागर जाता हूँ मैं, नालः-ब-लब जाता हूँ मैं
याद आयेंगे मुझे तेरे ज़मीन-ओ-आसमां
रह चुके हैं मेरी जौलांगाह तेरे बोस्तां
क्या कहूं किस शौक़ से आया था तेरी बज़्म में
छोड़कर ख़ुल्द-ए-अलीगढ़ की हज़ारों महफ़िलें
कितने रंगीं अहदो-पैमां तोड़कर आया था मैं
दिल नवाज़ाने-चमन को छोड़कर आया था मैं ...
रेडियो
से सम्बन्ध टूट जाने के बाद मजाज़ लखनऊ चले गए. वहां उनके पिता पेंशन पाने के बाद
से स्थाई रूप से बस गए थे. सो ये भी लखनऊ में रहते हुए साहित्यिक गतिविधियों में
दिलचस्पी लेने लगे, साथ ही एम.ए. करने के लिए कॉलेज भी जाने लगे लेकिन अपने मौजी
स्वभाव के कारण एम.ए. कर न सके. 1939 में उन्होंने अपने साहित्यिक मित्र अली सरदार
ज़ाफ़री के सहयोग से ‘नया अदब’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया.
1941
में मजाज़ का मस्तिष्क विकृत हो गया. स्वस्थ होने पर दिल्ली की हार्डिंग लाइब्रेरी
में मुलाजिम हो गए पर 1944 में ये नौकरी भी छूट गयी. मुशायरों में हाथोहाथ लिया
जाने वाला और घरों में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला मजाज़ चिंताओं और दरिद्रता का
जीवन बिताते हुए लखनऊ के बलराम हस्पताल में केवल 46 की आयु में 5 दिसंबर 1955 की रात को 10
बजकर 22 मिनट पर अल्लाह को प्यारा हो गया.
मजाज़
के अन्यतम मित्र हयातुल्लाह अंसारी उनकी इस दर्दनाक मौत के बारे में यूं लिखते हैं
-
“मजाज़
शाम तक अच्छे थे और अपनी बाग़-ओ-बहार तबीयत को मुताबिक अपने दोस्तों से पुरलुत्फ़
गुफ़्तगू में रात गए तक मसरूफ़ देखे गए. तकरीबन 12 बजे रात को वे अपने चंद हम-मशरब
साथियों के साथ लाल बाग के एक देसी शराबघर ले जाए गए, जहाँ से उनके साथी तीन बजे
रात को अपने-अपने घर चले गए और मजाज़ की पूरी रात वहीं गुज़री. रात-भर आँगन में पड़े
रहने की वजह से सुबह वे मफ़लूज मिले. दुकान के मालिक ने एक करीबी डाक्टर को बुलाकर
दिखाया, जिसने डबल निमोनिया तजवीज किया और वह खुद दोपहर के करीब मजाज़ को बलरामपुर
हस्पताल पहुंचा गया.
"वहां भी डाक्टरों ने डबल निमोनिया तजवीज करते हुए पेनिसिलिन के इंजेक्शन देने शुरू कर दिए. शाम के करीब हस्पताल के इंचार्ज ने तशखीस किया कि जिस्म के दाहिने हिस्से में फालिज का असर हो गया है और दिमाग की रगें फट गई हैं. अभी तक मजाज़ के घरवालों को कोई इत्तिला नहीं थी इसलिए कि मजाज़ तीन दिन से घर नहीं गए थे और घरवालों के लिए यह कोई नई बात नहीं थी. हस्पताल में किसी जानने वाले ने मजाज़ को देखकर उसके घरवालों को इत्तिला पहुंचाई. मजाज़ के वालदैन ने हस्पताल आकर मरनेवाले की हालत उस वक़्त देखी जब कि डाक्टरों ने मायूसी का इज़हार कर दिया था और आक्सीजन के जरिये सांस की आमद-ओ-शुद को क़ायम रखने की कोशिश की जा रही थी.
"दूसरों को सुरूर और इंबसात से मालामाल करनेवाला मजाज़ रुखसत हो गया और इस तरह रुखसत हो गया कि बेकसी आंसू बहा रही है. न उसका सिन मरने का था और न अभी ऐसी तंदुरुस्ती थी कि वह इतनी जल्दी दगा दे जाती. मगर भला हो ज़ालिम दोस्तों और शराब का कि उसने बहार-ए-अदब के एक गोशे को वीरान कर दिया.
"मजाज़ का मर जाना एक बेहद दर्दनाक सानिहा है. लेकिन जिस तरह वह मरा है वह तो एक अजीमुश्शान ट्रेजडी है. उसमें सिर्फ शराब का ही दखल नहीं है बल्कि ऐसे ज़ालिम दोस्तों का भी दखल हा जो उसकी बज्लहसंजी और शाइरी की वजह से उसे पिलाते थे. वो जानते थे कि यह पीना उसके लिए ज़हरे-क़ातिल है लेकिन फिर भी पिलाते थे. अपने मज़े और अपनी संगत के लिए पिलाते थे.
(जारी)
2 comments:
क्या कहूं किस शौक़ से आया था तेरी बज़्म में
छोड़कर ख़ुल्द-ए-अलीगढ़ की हज़ारों महफ़िलें।
क्या कहूं किस शौक़ से आया था तेरी बज़्म में
छोड़कर ख़ुल्द-ए-अलीगढ़ की हज़ारों महफ़िलें।
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