Saturday, February 13, 2016

स्वाद और भाषा छीन लेने वाले बदलाव

विकास की उलटबासियां - 2
-नवीन जोशी

गीत-संगीत और भाषा-बोली का गुम व्याकरण:

सुबह घूमने निकलता हूँ तो देखता हूँ कि बूढों से लेकर महिलाओं तक और खासकर युवाओं का पहनावा कितना बदल गया है. शॉर्ट्स-टी-शर्टवगैरह जो बच्चों-किशोरों का पहनावा था अब सभी ने मजे से अपना लिया है. कुर्ता-पाजामा-धोती या साड़ी-सलवार जैसी ड्रेस अब पिछड़ेपन की निशानी माने जाने लगे हैं. बड़े-बड़े मॉल के शोरूम देखिएकैसी-कैसी ड्रेस सजाए बैठे हैं. फैशन और डिजायन की तरक्की से कहीं ज्यादा पश्चिम की भौण्डी नकल ज्यादा छा गई. लखनऊ का मशहूर ‘हैण्डलूम हाउस’ हज़रतगंज का अपना शोरूम बंद करके पिछले साल गोरखपुर चला गया. उनके मैनेजर ने अफसोस के साथ बताया था कि हथकरघे की बनी बढ़िया काम वाली छह गजी साड़ियों की विक्री लखनऊ में कम होती चली गई थीइसलिए.

यहां यह बात साफ कर देना जरूरी है कि खान-पान या पहनावे के परिवर्तन अत्यंत स्वाभाविक हैं. जीवन का ढर्रा बदला हैमहिलाएं घर की चारदीवारी से निकल कर अब हर मुश्किल और कठिन काम बराबरी से कर रही हैं. खान-पान और पहनावे का सम्बंध दिनचर्या और सुविधा से है. इसलिए साड़ी या सलवार कुर्ते की जगह जींस-टॉप या दूसरी ड्रेस अपनाने में कतई हर्ज नहीं. बल्कि अपनाने ही चाहिए. इसी तरह खान-पान. मैगी हो पिज्जा या केएफसी या ढेरों दूसरे विदेशी व्यंजन उन्हें खाने में कोई हर्ज नहीं. बल्किदुनिया भर के स्वाद जरूर लेने चाहिए. आज पूरी दुनिया मुट्ठी में है तो जितनी हो सके भाषाएं सीखिएपहनावे धारण कीजिए और खान-पान बरतिए. कोई डण्डा नहीं चला रहा कि बाटी-चोखाआलू-पूरी-हलवाडोसा-पोहावगैरह ही गले से नीचे धकेलते रहिए या धोती-कुर्ता-लुंगी-साड़ी ही धारण कीजिए. लेकिन यह जरूर देखा जाना चाहिए कि अपने स्वादपहनावे और भाषा-बोलियों के साथ कैसा सलूक हम कर रहे हैं. जी हां,खान-पान और भाषा-बोलियों का परस्पर अंतरंग सम्बंध है और पिछले एक दशक में यह बहुत दरका है.

जो बदलाव बिना सोचे-विचारे हम जीवन में अपनाते जा रहे हैं वे हमारी भाषाओं को भी मार रहे हैं. स्वाद छिनता है तो अपनी बोली-भाषा-लोकगीत-संगीत सब जाते रहते हैं. क्या जरूरी है कि हम पहनावा बदलने के साथ भाषा भी बदल लेंबोली छोड़ दें और लोकोक्तियों-मुहावरों को मर जाने देंआप पश्चिमी संगीत पसंद करने को स्वतंत्र हैंखूब रैप सुनिए और डांस करिए लेकिन अपने लोक गीत-संगीत की हत्या करना क्यों जरूरी हैअपनी जड़ों का संगीत भी क्यों नहीं अंतर्राष्ट्रीय फलक पर गूंज सकतादिक्कत दुनिया भर की चीजें बरतने में नहीं है. दिक्कत है हमारे सोच में कि अपनी चीजों को पिछड़ेपन की निशानी मान कर उनकी घोर उपेक्षा किए जा रहे हैं और बाहरी चीजों को प्रगति और आधुनिकता का प्रतीक मान कर आंखें बंद करके अपनाए जा रहे हैं. यह नहीं देख रहे कि इससे हो क्या रहा है.

हमारी विविध लोक सांस्कृतिक विरासत का क्या से क्या हो गया. लोक गीत-संगीत और नृत्य के नाम पर जो परोसा जा रहा है वह सिर्फ फैशन में उसे ‘फोक’ कहलाता है लेकिन वह ऐसा भयानक सांस्कृतिक प्रदूषण है कि अब भी बच रहे माटी से जुड़े लोग माथा पीट रहे हैं. हिंदी अखबारों की भाषा देखिए. युवा पीढ़ी से जुड़ने के नाम पर जो छप रहा है वह क्या हैउसमें हिंदी बची न उसका व्याकरण और न अंग्रेजी ही ठीक से अपनाई जा रही है. व्याकरण के बिना भी क्या कोई भाषा हो सकती हैपिछले एक दशक में हमने बहुत तेजी से अपनी भाषा खोई है.

चरमराते शहर और उजड़ते गांव:

सबसे बड़ा और भयानक बदलाव जो हुआ है वह है गांवों का उजड़ना और उससे तेजी से शहरों का विकराल होना. गांवों से शहरों की ओर आबादी का पलायन नई बात नहीं है लेकिन पिछले दस वर्षों में यह इतना भयावह हो गया है कि ‘गांवों का देश भारत’ वाली परिभाषा ही उलटती जा रही है. सन 2011 की जनगणना में हमारी 11 फीसदी आबादी महानगरी बताई गई थी जिसके 2031 में 40 फीसदी हो जाने का अनुमान है. इसी रफ्तार से 2051 में देश की जनसंख्या का 50 प्रतिशत बड़े शहरों में रह रहा होगा. तब हम गांवों का देश नहीं रह जाएंगे. गांवों का देश नहीं कहलाने पर स्यापा करने की जरूरत नहीं है लेकिन यह सोचिए कि इतनी विशाल आबादी शहरों में रहेगी कहां और कैसे?हमारे सारे शहर अभी ही चोक हो चुके हैं. वहां सारी नागरिक सुविधाओं का गला घुट चुका है.

चेन्नै में हाल का जल-प्रलयहर बड़े शहर में धूप को निगलता जहरीला ‘स्मॉग’ और कश्मीर की बाढ़ बताती है कि शहरों में आबादी और उसके बढ़ते कचरे का बोझ उठाने की क्षमता खत्म हो चुकी है. हर शहर जाम,अतिक्रमणजल भरावझुग्गियोंपानी-बिजली संकट से त्रस्त है और लोग हैं कि गांव छोडछोड़ कर शहरों में आते जाने को मजबूर हैं. दम घोटू हो चुके शहरों को रहने लायक बनाए रखने के लिए उन्हें स्मार्ट सिटी’ बनाने की हास्यास्पद कवायद की जा रही है. कितना ही स्मार्ट सिटी बना लीजिएगांवों का उजड़ना नहीं थमेगा तो शहर में लोगों के लिए कही ठौर नहीं बचेगी. स्थिति भयावह होती जाएगी.


No comments: