Saturday, February 13, 2016

मिस्टर योस्सी की पश्चिमी जर्मनी यात्रा – 2


(पिछली क़िस्त से आगे)

किसी भी देश के मन और मानस का परिचय देने के लिए जब भी कोई पुस्तक लिखी जाती है, देशवासियों को वह विचित्र अथवा पूर्वाग्रहग्रस्त मालूम होती है. लिखने वाला उस देश के अजनबीपन को रेखांकित करता है, खांटी और परम्परागत को उभारता है. उधर औसत नागरिक यह मानता है कि बाबा आदम के जमाने की इन बातों को हम भुला चुके हैं. 

फिर भी किसी भी देश की यह औसत परम्परागत सच्चाई किसी हद तक वहाँ के हर नागरिक पर लागू होती है. जर्मनी की यात्रा में मुझे बार-बार यह अनुभव हुआ कि दीज स्ट्रेंज जर्मन वेजनामक यह पुस्तिका जर्मनों और उनके देश को समझने के लिए बहुत उपयोगी है.

आज जब एक खास तरह की पाँच सितारा उपभोगवादी संस्कृति सारे विश्व में फैल चुकी है, जबकि अंग्रेजी अपने अमेरिकी मुहावरे में विश्व-भाषा बन चुकी है, किसी देश की परम्परागत संस्कृति की बात करना निरर्थक मालूम हो सकता है. जर्मनी के, जो केवल 1871 से लेकर 1945 तक ही एक-राष्ट्र-एक-देश रहा है, जर्मनपन की बात करना तो और भी असंगत प्रतीत होता है. फिर जब हम यह देखते हैं कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी का बँटवारा होने पर कुल मिलाकर एक करोड़ सत्तर लाख लोग पूर्व जर्मनी से पश्चिम जर्मनी आ गए, युद्ध के दौरान और युद्धोत्तर आर्थिक चमत्कार के दौरान करोडों और लोग अपना प्रदेश, अपना जिला छोड़कर अन्यत्र बस गए, तब जर्मनी के विभिन्न अंचलों की अपनी अलग संस्कृति की चर्चा करना तो परम मूर्खता ही मानी जा सकती है. विचित्र किन्तु सत्य कि जर्मनी के जर्मनपन की, उसके विभिन्न अंचलों की आंचलिकता की चर्चा करने वाली पुस्तिका में दी गई जानकारी सही है.

उदाहरण के लिए इसमें लिखा है कि जर्मनी में मर्द, औरत की बायीं ओर रहते हुए चलता है. इसलिए कि किसी को अपनी दायीं तरफ रखना, सम्मान देने का ढंग है, इसलिए कि दिल बायीं तरफ होता है और इसलिए भी कि किसी जमाने में मर्द तलवार लेकर चलते थे और तलवारें उनकी बायीं ओर लटकती रहती थीं. यद्यपि पुस्तिका में कहा गया है कि यह परम्परागत रिवाज है और नए जमाने के लोग इसे नहीं मानते तथापि मैंने अनुभव किया कि नए जमाने के लोग भी अधेड़ होते ही परम्पराप्रिय होने लगते हैं. पुस्तिका के अनुसार ही जर्मन रिवाज के मुताबिक सीढ़ियाँ चढ़ते हुए, किसी भी जगह भीतर जाते हुए मर्द को आगे रहना चाहिए क्योंकि पहले जवांमर्द जाकर देख ले कि स्थिति ठीक-ठाक है तब ही अबला जा सकती है. यह नियम पहले आपमार्का विश्व-व्यापी शिष्टाचार के प्रतिकूल है. इसीलिए दो एक बार मैं इसे भूल गया मेरी मेजबान ने इस ओर ध्यान दिलाना जरूरी समझा.

हमारे यहाँ भी लोग-बाग बूढ़े होकर धार्मिकहोते देखे जाते हैं लेकिन अधेड़ होते ही, पैसा-टका बनते ही सांस्कृतिक’, ‘आंचलिकवगैरह-वगैरह हो जाने का जैसा आग्रह जर्मनी में है वैसा शायद दुनिया में कहीं और नहीं. जर्मन आज अपने जर्मनपन की बात नहीं करना चाहता. इस जर्मनपन के चलते वह दो दो विश्वयुद्धों में पिट चुका है. वह इस जर्मनपन के राजनीतिक सैनिक आयाम को भुला ही देना चाहता है. बच रहती है संस्कृति. इसमें भी वह आंचलिकता का आग्रह करता है ताकि कहीं फिर हिटलरी मनःस्थिति की लपेट में न आ जाए. इस सबका एक चमत्कारी परिणाम हुआ है. आधुनिक जर्मन के साहित्य, सिनेमा मंच और रेडियो दूरदर्शन में बोलियों का महत्त्व सहसा बढ़ गया है. हर क्षेत्र में आंचलिक स्थापत्य, तीज-त्योहार रस्मोरिवाज की जबरदस्त वापसी हुई है. आंचलिक स्थापत्य का तो पश्चिम जर्मनी में कुछ ऐसा बोलबाला है कि केवल मकान देखकर आप बता सकते हैं कि आप किस अंचल के हैं. गाँवों-कस्बों के पुराने मकान तो थे ही ऐसे, अब नए मकान भी उन्हीं नमूनों के बनाए जा रहे हैं और सर्वत्र नई पीढ़ी गगनचुम्बी रिहाइशी मकानों का, फ्लैट की जिन्दगी का विरोध कर रही है.

संक्षेप में यह कि पुस्तिका सही है. अगर आप किसी जर्मन स्त्री का हाथ चूमना चाहें तो ध्यान रखें कि यह अनुष्ठान केवल तब किया जाता है जब सिर पर छत हो. (खुले में नहीं) और आपके ओंठों के तथा सुन्दरी की उल्टी हथेली के बीच कागज की मोटाई भर जगह छूटी रहे ऐसा शास्त्रोक्त विधान है. और हाँ यह सूचना दिए जाने पर कोई ठहाके बुलन्द करता है, फब्तियाँ कसता है तो वह बवेरिया का होता है जिस अंचल के लोगों में से जिन्दादिली उसी तरह उठती रहती है जिस तरह उनकी विश्वविख्यात बीयर से झाग. 

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