Sunday, February 26, 2017

रीपोस्ट - प्रशान्त चक्रबर्ती की कवितायेँ - 1


ऋण

मेरी आत्मा पर के अपमान
चाबुक बरसाते हैं मेरी धारीदार पेशियों पर
न चुकाए गए तमाम ऋण
विस्मृति के कारनामे
पीड़ा का उत्सव हैं एक
बोध के सुदूर छोर पर
हमारी निरावृत्त इन्द्रियाँ बदल जाती हैं लुगदी में
बराबर भरपाई होती है
हमारी सारी
एन्द्रिक परेशानियों की
औपचारिकता की 

Credit

Indignities on my soul
Lashings on my striated muscles
All unpaid debts
Acts of forgetfulness
Are a festival of pain
On the far side of senses
Our exposed organs turn into pulp
All solemnity
Of our erotic trouble
Are recompensed equitably

No comments: