Monday, June 12, 2017

जंगल में एक और ट्रेन आकर रूकी है - स्वाति मेलकानी की कविताएं - 5


जंगल
- स्वाति मेलकानी

पहाड़ से जंगल कटे
और शहर में उगने लगे.
जंगल
सिर्फ पेड़ों के नहीं होते
ठीक उसी तरह 
जैसे
जंगली नहीं होते
सिर्फ जानवर.

शहर ढकने लगा है
फैलते जंगल से.
सूरज की
आधी अधूरी रोशनी को
झपटने के लिए
हजारों बेलें
पेड़ों को कसती हुई
बेतरतीब बढ़ती जाती हैं.

जंगल फैल रहा है
एक मजबूत जाल की तरह
जिसमें फँसी हुई मछलियाँ
सांस भर हवा के लिए
एक दूसरे के ऊपर
चढ़ती उतरती
लड़ती
या मरती हैं.

ऊँघते शहर में
धुंध से बैचेन
करोड़ों तारों की
चीखें सुनाई पड़ती हैं
और
एक बेजान खामोशी से
भरी हुई रात
घिसटती रेंगती
खत्म हो जाती है
फैक्ट्रियों के सायरन के साथ.

अलस्सुबह
जंगल में
एक और ट्रेन आकर रूकी है.
अनगिनत मुसाफिर
धरती सी गठरियाँ लादे
अपने पहुंचने लायक
जगहों को तलाशते हैं.

जंगल कहीं नहीं ठहरता
कई-कई सड़कों पर
बे-रोक टोक
दौड़ता रहता है ...
और इस जंगल में
रास्ता भटक जाना
एक बेहद मामूली बात है
जिसका जिक्र करना
महज
वक्त की बर्बादी है.
वही वक्त
जो हमेशा
जरूरत से कम पड़ जाता है
शहर के जंगल में.