तो मिखाइल गोर्बाचेव के जाने के अगले दिन गोपाल करीब सात लाख रुपये लेकर बदरी काका के पास पहुंचा और सारी रकम उनके चरणों पर रख कर बोला: "मेरी नादानी माफ़ करना कका। असल में मैं तो आपके पैर के नाखून की धूल तक नहीं हुआ। शर्त के मुताबिक मैंने घर और ईजा के गहने बेच दिए हैं। आप ये पैसा रखो। मैं चला हिमालय की तरफ। चलता हूँ कका। देर हो रही है। मुन्स्यारी जाने वाली बस पकड़नी है। जिंदगानी बची तो दुबारा आप के दर्शन होंगे।"
बूढा गोपाल बहुत दयनीय लग रहा था और उसे इस हालत में देख कर बदरी काका पसीज उठे।
"गोपालौ मेरे से बड़ा जुलम हो गया यार। अब इस बुढापे में तू कहॉ जाएगा। घर हर तू बेच आया। मैंने पहले भी कहा था लेकिन तू ने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया। मुझे पता हुआ कि तू मुझसे जलने वाला ठहरा। और आज से नहीं पता नही कब से जलने वाला हुआ। देख अगर लोग बाग़ मेरी गप्पें सुनते हैं तो इसलिये कि मैंने दुनिया देखी है। मेरा अब आगे का कुछ खास मालूम नहीं है। यहीं रहूँगा या कहीं और। इसलिये ये दरबार तुझी को चलाना पड़ेगा। मेरा ब्रह्मवाक्य सुन ले : गप्प मारने के लिए दुनिया घूमना बहुत ज़रूरी होता है। अब ये पैसे तू ले ही आया है तो ऐसा करते हैं इन पैसों से दुनिया देखने चलते हैं।"
आइडिया गोपाल को जम गया। जल्द ही गुरू चेला यूरोप की राह निकल पडे।
इंग्लॅण्ड, फ्रांस, जर्मनी और तमाम मुल्क घूमते हुए दोनों को कई महीने बीत गए। कहना न होगा काका को जानने वाले हर जगह थे।
गोपाल तो बस एक हारे जुआरी की तरह काका के पीछे पीछे लगा रहता था। उसे हैरत होती थी कि काका दर देश की भाषा बोल लेते थे। लेकिन उस बिचारे नश्वर मनुष्य को क्या मालूम था कि बदरी काका असल में हैं क्या।
इटली पहुँचने पर काका को ख़्याल आया कि दिसंबर का महीना चल रह था।
"यार गोपालौ यहीं आसपास मेरा एक दोस्त था कभी। चल हो के आते हैं।" यूरोप की जबर्दस्त ठंड के कारण गोपाल वैसे भी किसी किस्म का प्रतिरोध कर पाने में अक्षम था।
"ठीक है कका। कौन हुआ आपका ये वाला दोस्त?"
"अरे यार ईसाइयों के शंकराचार्जी जैसा हुआ। पोप कहते हैं उसको यहाँ वाले।"
गोपाल अब इस क़दर पिट चुका था कि काका की किसी भी बात पर कैसा भी ऐतराज़ नहीं कर पाता था।
"ठीक है कका।"
वेटिकन सिटी में जश्न का माहौल था क्योंकि २४ दिसंबर थी। क्रिसमस के पहले का दिन जब पोप महोदय अपने महल की बालकनी से बाहर खडे दसेक लाख श्रद्धालुओं को दर्शन देते थे। भीड़ के साथ बदरी काका और गोपाल भी पोप के महल की तरफ चल दिए। गोपाल ने ऎसी भीड़ कभी नहीं देखी थी। इस बार तो उसे पूरा भरोसा था कि पोप तो क्या पोप का बाप भी काका को नहीं देख पायेगा। महल की बालकनी के बाहर पोप की प्रतीक्षा करते करीब पन्द्रह लाख लोग खडे थे। नियत समय पर पोप बालकनी में आये और बदरी काका को पन्द्रह लाख लोगों के बीच उन्होने एक ही निगाह में देख लिया : "ओ बड्री ... माई अमीगो बड्री ... व्हाट आर यू डूइंग इन दैट कार्नर ... ओ माई गाड ... मेक वे प्लीज़ ... बड्री ... माइ फ्रेंड ..." इस तरह बदहवास पोप लोगों के बीच से रास्ता बनाते हुए बदरी काका को अपने साथ बालकनी तक ले गाए।
यह डोज़ गोपाल के लिए कुछ ज़्यादा ही हो गई थी। सदमे और थकान और निराशा और पराजय का मिला जुला असर रहा और वह बेहोश हो गया।
करीब आधे घंटे बाद गोपाल को होश आया। उस भीड़ में किसी को कहाँ ख़्याल था कि कौन बेहोश है कौन होश में। गोपाल खडा हुआ तो उसकी बगल में खडे एक अँगरेज़ ने उस से पूछा: "भाईसाहब वो बालकनी में एक तो बड्री खाखा खडे हैं ... वो गोल टोपी पहने बुड्ढा कौन होगा ..."
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