शोकगीत
उसने पेन नीचे रख दिया है
वहां वह रखा है बिना किसी हलचल के
बहुत सारी खाली जगह में
चुपचाप
उसने पेन नीचे रख दिया
बहुत कुछ ऐसा है
जिसे न तो लिखा ही जा सकता है
और न ही रखा जा सकता है
अपने भीतर
उसका शरीर अकड़ गया है
बहुत दूर घट रही किसी घटना के कारण
हालांकि
रात अब भी फड़फड़ाती है
एक दिल की तरह
बाहर बसन्त का अखीर है
पत्तों के झुरमुटों से आती हुई सीटियों की-सी आवाज़
- लोगों की है या चिडियों की?
भरपूर खिले हुए चेरी के पेड़
थपथपाते हैं
घर लौटते हुए भारी-भरकम ट्रकों की पीठ
हफ़्तों बीत जाते हैं
यों ही बहुत धीरे से आती है रात
और खिड़की के कांच पर इकट्ठा हो जाता है
पतंगों का हुजूम -
दुनिया भर से आए हुए वे
छोटे पीले टेलीग्राम!
अनुवाद - शिरीष कुमार मौर्य
इस कवि का संचयन जल्द आ रहा है ...........
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