Thursday, October 4, 2007

नया कबाड़ी

ये कविता हल्द्वानी के कबाड़ी के लिए ...

कबाड़ी खरीदता है जंग खाया हुआ लोहा
क्या करता है कबाड़ी
लोहे का ?

कबाड़ी खरीदता है पुराने अखबार
क्या करता है कबाड़ी
पुराने अखबारों का ?

कबाड़ी खरीदता है तमाम घरों की रद्दी
और बेचता है उसे एक दूसरे बडे कबाड़ी को
जहाँ से उसे मिलते हैं
थोड़े से पैसे और एक बड़ा सा खाली बोरा
दुबारा निकल पड़ने के लिए
कबाड़ की तलाश में

तिरस्कृत चीजों का बोझ अपने कन्धों पर लादे
सडकों पर घूमता कबाड़ी जानता है
कि वक़्त बीत जाने पर
अच्छे से अच्छा लोहा भी सात रूपए किलो बिक जाता है
चार रूपए किलो बिक जाती है अपने समय की सबसे शानदार खबर
और
और भी कई सारी चीज़ें जिन्हें वो खरीदता है
कबाड़ में

कबाड़ी जानता है और चुप रहता है
चुप रहता है वो क्योंकि देख रहा है
धीरे धीरे कबाड़ बनती इस दुनिया में अगर बचा
तो वही एक आदमी होगा
जो बचा रहेगा कबाड़ होने से !

-शिरीष कुमार मौर्य

No comments: