Monday, October 8, 2007

फर्नान्दो पेसोआ की ' नींद '

नींद

नींद जो मुझे आती है
वह मानसिक नींद जो मेरी देह पर आक्रमण करती है
वह सार्वभौमिक नींद जो व्यक्तिगत रूप से मुझे हरा देती है -

औरों के लिए ऐसी नींद सोने के लिए होती है
ऐसे आदमी की नींद जो सोना चाहता हो-
वही नींद जो बस नींद होती है।
लेकिन और भी है¸ बात और गहरी है¸ इससे भी ऊंची बातः
यह सारी निराशाओं को
अपने भीतर ले लेने वाली नीद होती है¸
वह जो हर उदासी को बदल देती है¸
यह उस आभास की नींद है
जो मुझे बताता है कि मेरे भीतर एक संसार है
हालांकि उसे न मैंने स्वीकार किया है न नकारा है ।
तब भी जो नींद मुझे आती है वह एक साधारण नींद होती है।
थक जाने से आप कम से कम मुलायम तो पड़ जाते हैं।
हार जाना कम से कम आपको चुप तो करा देता है।
छोड़ देने से कम से कम आपकी कोशिशें तो खत्म हो जाती हैं।
और अन्त का मतलब कम से कम उम्मीदों का न बचना तो होता है।
खिड़की खुलने की आवाज आती है।
मैं बेपरवाही से अपना सिर बांई तरफ घुमाता हूं
अपने कंधे के परे देखता हूं
जिसने उस आवाज को महसूस किया था
और अधखुली खिड़की से मैं देखता हूं
सड़क के उस तरफ के मकान की तीसरी मंजिल पर
एक युवती को¸
वह बाहर झुकी हुई है
उसकी नीली आंखें किसी को खोज रही हैं।
किसे?
मेरी बेपरवाही पूछती है।
और यह सब नींद है।

या ख़ुदा इतनी सारी नींद …

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