Friday, January 11, 2008

इस काम भी तो आ सकता है धर्म

उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा जिले में बहने वाली गगास नदी पिछले पांचेक सालों से गर्मियों में एक गीली लकीर भर रह जाती है। नतीजतन सारा इलाका जैसे जैसे गर्मियां काटता है और मानसून के आने की राह देखता है। इसी नदी की घाटी में मेरे पुरखों का गांव है। अंग्रेज़ों के समय से प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की जो क्रूर परम्परा चली, सबसे पहले पेड़ उस की ज़द में आए। सारे के सारे कुमाऊं-गढ़वाल के ज़्यादातर जंगल काट डाले गए और आज़ादी आने पर इस क्रूरता में कमी आने के बजाए हमारे अपने वन-अधिकारियों ने औने पौने में जंगल कटा कर अपने घर भरने में अधिक रुचि दिखाई।


इधर के दिनों में थोड़ी बहुत 'चेतना' विकसित हुई है लेकिन तथ्य यह है कि कुमाऊं-गढ़वाल की ज्यादातर पहाड़ियां नंगी हैं। मेरे गांव का भी यही हाल है। गांव के धीरे धीरे उजाड़ होते घर के बाहर स्लेट के पत्थरों से बने बरामदे की चहारदीवारी पर बैठे पीतल के गिलास में चाय पीते इधर उधर के गांवों पर निगाह डालने पर दिल उदास हो जाता है। वृक्षहीन पहाड़ियों पर चरते मरियल मवेशियों को देख कर दिमाग सुन्न पड़ जाता है।


इस नैराश्य के बीच आंख पड़ती है गोल्ल देवता के जंगल पर। तब लगता है कि सब कुछ अभी ख़त्म नहीं हुआ है। यह जंगल एक पहाड़ी की चोटी पर करीब पांच वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है और सुखद तरीके से गदबद हरा है। मान्यता है कि यह दैवीय जंगल है और यहां से एक पत्ता भी लाना पाप होता है। दरअसल यह हमारे पुरखों की दूरदृष्टि थी। वे समाज के भविष्य को देख रहे थे। उन्हें भान था कि लालच और आबादी को पेड़ों-जंगलों से दूर रखने के लिए धार्मिक विश्वास और उस से जुड़े नैसर्गिक भय का सहारा लेना ही होगा। यह अनायास नहीं था कि इन मान्यताओं को नकारने वालों को डराने के वास्ते झूठे-सच्चे किस्सों को गढ़ा गया। समूचे कुमाऊं-गढ़वाल में इस तरह के धार्मिक जंगल अब भी अस्तित्वमान हैं और यकीन मानिए पहाड़ों की नदियों में जो भी थोड़ा बहुत पानी गर्मियों में बच पाता है वह इन्हीं जंगलों की वजह से होता है।



इस तरह की परम्पराएं समूचे भारत के गांवों में किसी न किसी रूप में बची हुई हैं और तमाम तुग़लकी सरकारों और उन की नीतियों के बावजूद अपने हिस्से के जंगलों को बचाए हुए हैं। राम चन्द्र गुहा और माधव गाडगिल की किताब 'Ecology and Equity' में ऐसे कई जंगलों का ज़िक्र है।


आपको एक दिलचस्प वृत्तांत सुनाता हूं। १७०९ में उत्तरी कोलम्बिया में किसी को एक पेड़ की जड़ में वर्जिन मैरी की आकृति नज़र आई। इस महापुरुष का अन्धविश्वास कह लें या कुछ और, इस 'खोज' के कारण पक्षियों की दो दुर्लभ प्रजातियां Recurve-billed Bushbird और Perija Parakeet खत्म होते होते बच गए. इस महापुरुष के काम को वैटिकन ने पहचाना और इस जंगल को पवित्र घोषित कर दिया. तीन शताब्दियों तक यह इलाका वन्य अभ्यारण्य बना रहा और २००५ में चुनिन्दा पर्यावरणविदों के लिए खोल दिया गया. उसी साल करीब ४० साल के अंतराल के बाद Recurve-billed Bushbird को देखा गया. अपनी तनिक टेढ़ी चोंच के कारण 'मुस्कराने वाली चिडिया' कहे जाने वाले इस परिन्दे के पूरी तरह ख़त्म हो चुकने की अफ़वाहों को लगाम लगी.


Perija Parakeet तो Recurve-billed Bushbird से भी अधिक दुर्लभ माना जाता था. इसे भी यहां देखा गया और माना जाता है कि विश्व में केवल यही जंगल है जहां ये पाए जाते हैं अलबत्ता इन की तादाद ४० से ५० के बीच आंकी गई है.


कोलम्बिया में प्राकृतिक संसाधनों को यूरोप के कई मुल्कों ने बेरहमी से दुहा लेकिन एक वेटिकन के कहने पर अगर कुदरत की कलाकारी का कोई भी हिस्सा बच सकता है तो किसी को भी किसी भी तरह के धर्म से कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए. खास तौर पर इस समय में जब इन्सान जैसी शै के अस्तित्व पर तमाम ख़तरे मंडरा रहे हैं.

2 comments:

Priyankar said...

राजस्थान में गांव के बाहर छोड़े गए ऐसे दैवीय जंगलों को 'ओरण' कहते हैं . धार्मिक विश्वास के तहत सामान्य दिनों में ऐसे जंगलों से एक तिनका लेना भी पाप समझा जाता है . ये जंगल ग्राम-समाज की साझा सम्पति थे . अकाल के दुर्दिनों में ढोर-डांगर ऐसे जंगलों की वनस्पतियों की बदौलत ही बच पाते हैं .

पर अब धीरे-धीरे सब बदल रहा है . जानवरों की अब कौन सोचे . आदमी अपना ही दुश्मन बना हुआ है .

मुनीश ( munish ) said...

saadhu!saadhu!