Saturday, February 2, 2008

अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार !

वीरेन डंगवाल की कविता:

पत्रकार महोदय

'इतने मरे'
यह थी सबसे आम, सबसे ख़ास ख़बर
छापी भी जाती थी
सबसे चाव से
जितना खू़न सोखता था
उतना ही भारी होता था
अख़बार।

अब सम्पादक
चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी
लिहाज़ा अपरिहार्य था
ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय।
एक हाथ दोशाले से छिपाता
झबरीली गरदन के बाल
दूसरा
रक्त-भरी चिलमची में
सधी हुई छ्प्प-छ्प।

जीवन
किन्तु बाहर था
मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली
चीख़ के बाहर था जीवन
वेगवान नदी सा हहराता
काटता तटबंध
तटबंध जो अगर चट्टान था
तब भी रेत ही था
अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार !

1 comment:

अजित वडनेरकर said...

अशोक भाई
वीरेनजी की कविता अच्छी लगी। इससे भी ज्यादा तल्ख़ी से बात आती तो और बेहतर होता। कुछ और कविताएं भी हैं ऐसी जो पत्रकारों की खबर लेती हो ?
और हां, ये जिस झबरीली गर्दनवाले संपादक का उल्लेख कविता कर रही है , वीरेन जी से पूछियेगा कि सचमुच है ऐसा कोई या एक स्कैच खींचा है। वजह यही कि जब मैं नवभारत टाइम्स में था तो ऐसी ही झबरीली गर्दन वाला एक संपादक वहां था।