इस बार कबाड़खाने में एक प्रशिक्षार्थी कबाड़ी आया है, जी हाँ वो कोई और नही हम ही हैं। सोचा क्यों ना खुद ही अपने आने की सूचना भी दे दें और हाजिरी भी लगा लें। अभी तो कबाड़ यानि रद्दी लेना देना सीखना है, फिलहाल तो अपने यहाँ पड़ी एक 'निठल्ले दोहे' नाम की रद्दी छोड़े जा रहा हैं, जो आज से २ साल पहले हमने बुनी थी।
मेरा तेरा करता रहता ये सारा संसार,
खाली हाथ सभी को जाना छोड़ के ये घरबार।
उत्तर, दक्षिण, पूरब पश्चिम, चाहे तुम कहीं भी देखो,
वही खुदा है सब जगह, घर देखो या मंदिर देखो।
जब से जोगी जोग लिया, और भोगी ने भोग लिया,
तब से ही इस कर्म गली में, कुछ लोगों ने ढोंग लिया।
पहन के कपड़े उज्जवल देखो, वो चला मंदिर की ओर,
मन के चारों ओर लिपटी है, गंदगी की डोर।
आज घटी एक घटना, कल बन जायेगी इतिहास,
पैर फिसल के गिरा बेचारा, लोगों के लिये परिहास।
कहीं जल रहे दीप, कहीं मातम का माहौल है,
इसका उल्टा होगा एक दिन, क्योंकि दुनिया गोल है।
चलो बहुत हुआ रोना धोना, सुनते हैं संगीत,
'तरूण' प्यार के गीत सुनाओ, सभी हमारे मीत।
कोशिश करूँगा की अगली बार कोई बढ़िया सा कबाड़ आप लोगों की नजर कर सकूँ।
6 comments:
यह कबाड़ भी बढ़िया लगा ।
घुघूती बासूती
ये कबाड़ भी कुछ कम नहीं है.....
इस कबाड़ में तुकों की भरमार है
पर थोड़ी और लय की दरकार है।
तुकबंदी में लपेट कर अच्छा कबाङ लाया गया है।
तरुण बाबू, सही है,ऐसे ही अलख जगाएं...
अरे सही गुरू [ हम पुस्तक मेले से रहीम/ कबीर उठाए ] - मनीष
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