Monday, February 25, 2008
तुम एक पाली-पोसी विनयी स्त्री, मैं नहीं
कई साल पहले इलाहाबाद से निकलने वाली किसी पत्रिका, एक महिला संगठन से जुड़ी कुछ स्त्रियां जिसे मिलकर निकाला करती थीं, में ये कविता पढ़ी थी। कवि का नाम वगैरह कुछ याद नहीं, सिर्फ कविता किसी कोने में रह गई थी। फिर कुछ समय बाद तसलीमा नसरीन की किताब 'औरत के हक मे' मैंने ये कविता दोबारा पढ़ी। जूलिया द बारजोंस की लिखी यह कविता है। उनके बारे में और ज्यादा कुछ पता नहीं, लेकिन अकेली ये कविता काफी है बताने के लिए वह क्या रही होगी। आज यह कविता :
तुम एक पाली-पोसी विनयी स्त्री, मैं नहीं
जूलिया द बारजोंस
जो कंठ स्वर मेरी कविता में
बातें करता है
वह तुम्हारा नहीं
मेरा कंठ स्वर है
तुम अगर पोशाक हो
तो मैं उसकी खुशबू
हमारे बीच फैली हुई है गहरी खाई
तुम सामाजिक झूठ के कगार पर खड़ी
एक फीकी गुडि़या हो
मैं सत्य
मैं वीर्यवान अग्निकन्या
तुम अपनी इस पृथ्वी की तरह स्वार्थी हो
मैं नहीं
मैं अपनी अस्मिता के लिए
अपना सबकुछ देकर जुए पर बैठ सकती हूं
तुम एक निपुण गृहस्थ लड़की हो
श्रीमती जूलिया
मैं नहीं
मैं जिंदगी हूं
मैं शक्ति हूं
मैं स्त्री हूं
तुम अपने पति, अपने मालिक की अधिकृत वस्तु हो
मैं नहीं
मैं किसी की संपत्ति नहीं
मैं सबकी हूं
मैं सबके लिए, सबको मैं हूं
खुद को मैंने
शुभ विचारों से संजोया है
तुम अपने बाल संवारा करो
चेहरे पर प्रसाधन लगाओ
मैं नहीं
मेरे बालों को हवा संवारा करती है
मेरे चेहरे को सूर्य रंगता है
तुम घर की वधू हो
एक पाली-पोसी विनयी स्त्री
मैं कट्टरता और कुसंस्कार से थकी-चुकी नहीं
मैं द्रुतगामी अश्व-सी पृथ्वी पर
ढूंढती फिर रही हूं
थोड़ी-सी समता।
(फोटो: रोहित उमराव)
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5 comments:
was trying to find myself and this poem is like a mirror where i found myself again
कुछ बातों, विचारों, रचनाओं पर कुछ कहना अपना छोटापन जग जाहिर करना और सूर्य को दीपक दिखाना सा होता है । कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद ।
घुघूती बासूती
बहुत सुन्दर कविता, इसे पढ़वाने के लिए धन्यवाद
वाह - ऊंची कविता, लम्बी ढूंढ, गहरी जड़
waah ... dhanyavad
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