Wednesday, March 5, 2008

बुल्लिया, की जाणा मैं कौन?

बुल्लिया, की जाणा मैं कौन?

ना मैं मोमिन विच्च मसीता

ना मैं विच्च कुफ़र दियां रीता,

ना मैं पाक आं विच पलीता,

ना मैं मूसा ना फ़िर औन।

ना मैं विच्च पलीती पाकी,

ना विच्च शादी, ना गमना की,

ना मैं आबी ना मैं खाकी,

ना मैं आतिश ना मैं पौन।

ना मैं भेत मजब दा पाया,

ना मैं आदम-हव्वा जाया,

ना मैं अपना नाम धराया,

ना विच बैटन ना विच भौं।

अव्वल आखर आप नू जाणा,

ना कोई दूजा आप पछाणा ,

मैथों वध ना कोई सिआणा,

बुल्ल्हिया ओह खड़ा है कौन ?

इन पंक्तियों का अर्थ कुछ यू है...

साधना की एक ऐसी अवस्था आती है जिसे संत बेखुदी कह लेते हैं, जिसमे उसकी अपना आपा अपनी ही पहचान से परे हो जाता है। इसीलिए बुल्लेशाह कहते हैं की मैं क्या जानू की मैं कौन हूँ?

मैं मोमिन नही की मस्जिद में मिल सकूं, न मैं पलीत (अपवित्र) लोगों के बीच पवित्र व्यक्ति हूँ और न ही पवित्र लोगों के बीच अपवित्र हूँ। मैं न मूसा हूँ और फ़िर औन भी नही हूँ।

इस प्रकार मेरी अवस्था कुछ अजीब है, ना मैं पवित्र लोगों के बीच, न अपवित्र लोगों के बीच हूँ और मेरी मनोदशा न प्रसन्नता की है, न उदासी की। मैं जल अथवा स्थल में रहनेवाला भी नही हूँ, न मैं आग हूँ और पवन भी नही।

मजहब का भेद भी नही पा सका। मैं ऐडम और हव्वा के संतान भी नही हूँ। इसलिए मैंने अपना कोई नाम भी नही रखा है। ना मैं जड़ हूँ और जगम भी नही हूँ।

कुल मिलाकर कहूँ, मैं किसी को नही जानता, मैं बस अपने-आपको ही जानता हूँ, अपने से भिन्न किसी दूसरे को मैं नही पहचानता। बेखुदी अपना लेने के बाद मुझसे आगे सयाना और कौन होगा? बुल्लेशाह कहते हैं की मैं यह भी नही जानता की भला वह खड़ा कौन है?

जब भी मैं ख़ुद को अकेला पता हूँ, पता नही क्यों बुल्लेशाह की ये पंक्तियाँ काफी प्रभावित करती हैं।... विनीत

2 comments:

siddheshwar singh said...

मैं आपकी संवेदनशीलता से प्रभावित हूं.सलाम

TheQuark said...

बुल्ले शाह जी ने बहुत खूबसूरती से लिखा है . हालांकि मेरी दर्शन एवं अन्य गूढ़ मुद्दों पे पकड़ कमजोर है पर क्या बुल्ले शाह अद्वैत वेदान्त में ही कही बाते इतनी सरल शैली में समझा रहे हैं ?