Thursday, March 20, 2008

जो नर जीवें खेलें फाग

जो नर जीवें खेलें फाग


हर वर्ष की तरह इस बार भी नैनीताल में युगमंच, श्री रामसेवक सभा, पर्यटन एवं संस्कृति निदेशालय, नैनीताल समाचार, नयना देवी ट्रस्ट, संगीत कला अकादमी, श्री हरि संंकीर्तन संगीत विद्यालय आदि के सहयोग से तीन दिन का `होली महोत्सव´ मनाया गया। होली के नागर रूप - बैठी होली से लेकर ठेठ ग्राम रूप - खड़ी होली तक होलियों के कई दौर चले। समापन नैनीताल समाचार के पटांगण में बैठी होली से हुआ। अंत में एक होली जुलूस निकाला गया, जिसमें राजीवलोचन साह ने एक विशिष्ट अर्थच्छाया और व्यंजना के साथ उत्तराखंड की जनभावनाओं से खिलवाड़ करने वाले राजनीतिक दलों, तिब्बत में नरसंहार कर रही चीनी सरकार, अमरीका से एक दुरभिसन्धि में बंध रही भारत सरकार, स्थानीय निकायों के निर्वाचन में खड़े होने वाले प्रत्याशियों आदि के लिए आशीष वचन उचारे। जनकवि गिरीश तिवारी `गिर्दा´ ने स्थानीय निकायों के निर्वाचन की तिथि की घोषणा के बाद के मंज़र पर एक गीत रचा है, जिसे उन्होंने होली जुलूस के साथ घूमते हुए जगह-जगह रुककर सुनाया। कबाड़खाना के साथियों और यात्रियों के लिए प्रस्तुत है यह गीत, लेकिन मूल कुमाऊंनी में। जैसे श्रीलाल शुक्ल के राग-दरबारी के शिवपालगंज में पूरा देश समाया है, वैसे ही गिर्दा के इस गीत में पूरे देश की राजनीति !


मेरी बारी, मेरी बारी, मेरी बारी

हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

धो धो कै तो सीट जनरल भै छा

धो धो के ठाड़ हुणै ए बारी

हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

एन बखत तौ चुल पन लुकला

एल डाका का जसा घ्वाड़ा ढाड़ी

हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

काटी मैं मूताणा का लै काम नी ए जो

कुर्सी लिजी हुणी ऊ ठाड़ी

हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

कभैं हमलैं जैको मूख नी देखो

बैनर में छाजि ऊ मूरत प्यारी

घर घर लटकन झख मारी

हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

हरियो काकड़ जसो हरी नैनीताल

हरी धणियों को लूण भरी नैनीताल

कपोरी खाणिया भै या बेशुमारी

एसि पड़ी अलबेर मारामारी

हाइ अलबेरि यो देखो मजेदारी

गद्यात्मक भावार्थ -

मेरी बारी ! मेरी बारी - कहते सोचते हैं चुनावार्थी ! हाय ! इस बार देखिए ये मजेदारी!बड़ी मुश्किल से तो सीट अनारक्षित हुई है, बड़ी मुश्किल से हम खड़े हो पा रहे है। और ये वही लोग है जो विपदा आने पर बिलों में दुबक जाते है पर इस समय तो डाक के घोड़ों की तरह तैनात खड़े हैं (पहाड़ के दुर्गम क्षेत्रों में डाक घोड़ों पर ले जायी जाती रही है)। गजब कि बात है कि जो कटे पर मूतने के भी काम नहीं आता, वो कुर्सी की खातिर खड़ा होने में कभी कोताही नहीं करता। कभी जो सूरत नहीं दिखती वही उन बैनरों में चमकती-झलकती है, जो घर-घर लटके झख मारते रहते हैं।

और अंत के छंद में समया है अपार दुख - कि हरी ककड़ी के जैसा मेरा हरा नैनीताल! हरे धनिए के चटपटे नमक वाले कटोरे -सा भरा नैनीताल ! ऐसे हमारे नैनीताल नोच-नोच कर खाने चल पड़े हैं ये लोग बेशुमार ! अबकी पड़ी है ऐसी मारामारी !

2 comments:

Tarun said...

Girda me abhi bhi jo josh hai woh dekhte banta hai, bolne me aaye to unhe mike ki jaroorat hi nahi...kya baat kahi hai

कभैं हमलैं जैको मूख नी देखो
बैनर में छाजि ऊ मूरत प्यारी
घर घर लटकन झख मारी

दीपा पाठक said...

गिर्दा को सुनना हमेशा ही एक अलग अनुभव होता है लेकिन जनपक्ष से जुङे मुद्दों पर और होली के दौरान वह अपने श्रेष्ठतम रूप में होते हैं। काश ये गीत उन्ही की जुबानी सुनने को मिल पाता।