Sunday, April 27, 2008

९-१० रात्रि की कविताएं: भाग १


नाज़िम हिकमत का जन्म १९०१ में तुर्की में हुआ था और १९६३ में सोवियत रूस में उन की मौत . कुल ६२ साल की उम्र में से अड़तालीस साल उन्होंने कविताएं लिखीं. इस कावयमय जीवन के साथ साथ उनका जीवन संघर्ष भी चलता रहा. बहुत छोटी वय में क्रांतिकारी के रूप में चिन्हित कर लिए गए नाज़िम को कुल १८ साल जेल में काटने पड़े और १३ सालों तक वे एक से दूसरे देश निर्वासन में भटका किये.


दुनिया भर की भाषाओं में अनूदित किये जाने के बावजूद उनकी कविता उनकी मातृभूमि में प्रतिबंधित रही. नाज़िम की कविता की ताक़त जनता और सिद्धान्त के प्रति उनकी उनकी उत्कट आस्था में निहित है. यही कारण रहा कि उनकी कविता दुनिया भर में चर्चित हुई और पसंद की गई. नाज़िम हमारे समय के एक बड़े मार्गदर्शक कवि हैं.


नाज़िम के कुछ महान अनुवाद हमारे कबाड़ख़ाने के प्रमुख श्री वीरेन डंगवाल द्वारा किये गए थे और वर्ष १९९४ में 'पहल' द्वारा एक विशेष पुस्तिका के रूप में छपे थे. मैं आज से अनुवादों की उस श्रृंखला की शुरुआत यहां करने जा रहा हूं. आज प्रस्तुत है नाज़िम की प्रेम कविताओं की एक सीरीज़ का पहला हिस्सा:



९-१० रात्रि की कविताएं - एक


(इस श्रृंखला का शीर्षक जेल में रात नौ बजे बत्ती बुझने के समय से संबंधित है.हिकमत ने अपनी पत्नी पिराये* से वायदा किया था कि इन क्षणों में वे सिर्फ़ उसी के बारे में सोचेंगे और उसी को संबोधित कर लिखेंगे. *पिराये नाज़िम की दूसरी पत्नी थीं)


कितना खुशनुमा तुम्हारे बारे में सोचना
मौत और जीत की खबरों के बीच
जेल में
जब कि मैं चालीस पार ...


कितना सुन्दर तुम्हारे बारे में सोचना:


तुम्हारे हाथ सुस्ताते नीले कपड़े पर
तुम्हारे बाल घने-भारी और मुलायम
जैसे मेरे प्यारे इस्तांबूल की धरती ...


तुम्हें प्यार करने का सुख
गोया एक दूसरा शख़्स है मेरे भीतर ...
जिरेनियम की पत्तियों की तीख़ी महक मेरी उंगलियों में एक धुपैली ख़ामोशी,
और देह की पुकार एक गर्म
गहरा अंधेरा
चमकीली सुर्ख़ रेखाओं से द्विभाजित ...


कितना सुन्दर तुम्हारे बारे में सोचना,
तुम्हारी बाबत लिखना,
जेल में बैठे तुम्हें याद करना:
इस या उस दिन फ़लां - फ़लां जगह तुमने जो कहा,
शब्द ठीक-ठीक वही नहीं
मगर उनके आभामण्डल की दुनियां ...


कितना सुन्दर तुम्हारे बारे में सोचना!
मुझे लकड़ी से गढ़ना चाहिये तुम्हारे लिये कुछ -
कोई बक्सा
कोई छल्ला -
और बुन देना चाहिये क़रीब तीन मीटर उम्दा रेशम
और कूद कर
तनते
और झकझोरते अपनी खिड़की के लौह सींखचे
मुझे चिल्ला देनी चाहिये वे बातें जो मैं तुम्हारे लिये लिखता हूं
दुग्ध - धवल नील स्वतंत्रता के लिये ...


कितना सुन्दर तुम्हारे बारे में सोचना:
मौत और जीत की ख़बरों के बीच
जेल में
जबकि मैं
चालीस पार !

4 comments:

Yunus Khan said...

पहल की ये पत्रिका मेरे संग्रह में है । और जबलपुर वाले घर में है । उस अंक की खूब खूब याद आ गयी ।

पारुल "पुखराज" said...

शुक्रिया! और भी पढ़वायें

अमिताभ मीत said...

बहुत सही है भाई.

अजित वडनेरकर said...

बहुत सुंदर । अच्छी पेशकश है अशोक भाई