इन रेखांकनों में वही फ़ोर्स है जो कुमार गायकी का वैशिष्ट्य था. गुरूजी बताते थी कि मैं ये रेखांकन बनाते समय कुमारजी को नहीं उनके गायन को देखता था ग़रज़ ये कि जहाँ कुमारजी का सुर गया और जहाँ श्वास की स्पेस बही मैं वहीं अपनी पेंसिल रोक देता था .जहाँ जहाँ स्कैच में तीख़ापन है वहाँ वहाँ कुमारजी ने साँस ली है. गुरूजी ने मुझे ये भी बताया था कि अलग अलग राग गाते समय कुमारजी की देहभाषा अलग अलग होती थी ...ये वाक़ई एक विलक्षण बात है. जैसे तोड़ी में एक ख़ास किस्म का गांभीर्य है तो बागेश्री या बिहाग गाते समय एक अलौकिक आनंद की सृष्टि हो रही है कुमारजी के भावों में गुरूजी,कुमारजी की ये सुर-रेखा जुगलबंदी बहुत नायाब है और राग में पोशीदा रूह को जिस्म देती है...अमूर्त को मूर्त करती सी.कभी इन रेखाओं को कोलाज से दूर कर जुदा जुदा भेजूंगा आपको और साथ में गुरूजी का चित्र भी.मालवा के इन गुणी फ़नकारों को भावांजली.
2 comments:
गुरुजी के रेखाचित्र पसन्द आए।धन्यवाद , शिरीष जी।
इन रेखांकनों में वही फ़ोर्स है जो कुमार गायकी का वैशिष्ट्य था. गुरूजी बताते थी कि मैं ये रेखांकन बनाते समय कुमारजी को नहीं उनके गायन को देखता था ग़रज़ ये कि जहाँ कुमारजी का सुर गया और जहाँ श्वास की स्पेस बही मैं वहीं अपनी पेंसिल रोक देता था .जहाँ जहाँ स्कैच में तीख़ापन है वहाँ वहाँ कुमारजी ने साँस ली है. गुरूजी ने मुझे ये भी बताया था कि अलग अलग राग गाते समय कुमारजी की देहभाषा अलग अलग होती थी ...ये वाक़ई एक विलक्षण बात है. जैसे तोड़ी में एक ख़ास किस्म का गांभीर्य है तो बागेश्री या बिहाग गाते समय एक अलौकिक आनंद की सृष्टि हो रही है कुमारजी के भावों में गुरूजी,कुमारजी की ये सुर-रेखा जुगलबंदी बहुत नायाब है और राग में पोशीदा रूह को जिस्म देती है...अमूर्त को मूर्त करती सी.कभी इन रेखाओं को कोलाज से दूर कर जुदा जुदा भेजूंगा आपको और साथ में गुरूजी का चित्र भी.मालवा के इन गुणी फ़नकारों को भावांजली.
Post a Comment