Saturday, June 21, 2008

टॉमस ट्रांसट्रॉमर



विश्वकविता में अपना एक विशिष्ट स्थान रखने वाले स्वीडिश कवि टॉमस ट्रांसट्रॉमर का जन्म 15 अप्रैल 1931 को हुआ। उनका बचपन अपनी के मां के साथ एक श्रमिक बस्ती में बीता। एक विद्यार्थी के रूप में उन्होंने मनोविज्ञानी की उपाधि प्राप्त की और संगीत से भी उन्हें बेहद लगाव रहा। इन सब बातों का प्रभाव उनकी कविता पर पड़ा, जहाँ मौजूद भीतरी और बाहरी संसार पाठकों को बरबस ही अपनी ओर खींचता है। यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी दो कवितायेँ

शोकगीत

उसने पेन नीचे रख दिया
वहां वह रखा है बिना किसी हलचल के
ढेर सारी खाली जगह में
चुपचाप

उसने पेन नीचे रख दिया
बहुत कुछ ऐसा है
जिसे न तो लिखा ही जा सकता है
और न ही
रखा जा सकता है अपने भीतर

उसका शरीर अकड़ गया है
बहुत दूर घट रही किसी घटना के कारण
हालांकि
रात अब भी फड़फड़ाती है
एक दिल की तरह

बाहर बसन्त का अखीर है
पत्तों के झुरमुटों से आती हुई सीटियों की-सी आवाज़- लोगों की है
या चिडियों की?

भरपूर खिले हुए चेरी के पेड़
थपथपाते हैं
घर लौटते हुए भारी-भरकम ट्रकों की पीठ

हफ्तों बीत जाते हैं
यों ही
बहुत धीरे से आती है रात
और खिड़की के कांच पर इकट्ठा हो जाता है
पतंगों का हुजूम -

दुनिया भर से आए हुए
वे छोटे-छोटे पीले टेलीग्राम!


चिट्ठियों के जवाब

अपनी मेज़ की
अंतिम दराज़ से मैं निकलता हूँ
एक चिट्ठी
छब्बीस साल हुए
जब ये पहुँची थी पहली बार
मेरे पास

दहशत में लिखी गई एक चिट्ठी
अब भी साँस ले रही है यह
जबकि
मिली है दूसरी बार मुझे

मेरे घर में मानो पाँच खिड़कियाँ हैं
चार खिड़कियों में से दिन चमकता है
साफ़-सुथरा और शान्त
लेकिन पांचवी खुलती है एक काले आकाश में
आंधी और तूफ़ान के बीच
मैं इसी खिड़की के आगे खड़ा हूँ -- इस चिट्ठी के आगे

कभी-कभी
एक अथाह-अगम खाई खुल जाती है
दो लगातार दिनों के बीच भी
लेकिन
एक पल में गुज़र सकते हैं
छब्बीस साल!

समय कोई सीधी रेखा नहीं है
यदि आप दीवार को ठीक जगह टटोलें तो सुन सकते हैं
तेज़ कदमों की आहटें
आप सुन सकते हैं
खुद को ही अतीत में चलते हुए
दीवार के उस तरफ

क्या कभी
इस चिट्ठी का कोई जवाब दिया गया?
मुझे कुछ याद नहीं
यह बहुत पहले की बात है
तब से समन्दर की अनगिन लहरें
आती रहीं
जाती रहीं
दिल उछलता रहा
अगस्त की रातों में भीगी हुई घास पर उछलते
मेंढकों की तरह

इकट्ठी हो चली हैं ऐसी कई
लाजवाब चिट्ठियां
बादलों के उस जमावड़े की तरह
जो बुरे मौसम का संकेत देता है
सूरज को तेजहीन बनाता हुआ

एक दिन मैं जवाब दूंगा -
उस दिन जब एकाग्र हो जाऊँगा
मुत्यु में ही सही
या फिर उस दिन
जब यहाँ से बहुत दूर कहीं खोज पाऊंगा
खुद को दोबारा

जबकि
मैं चल रहा हूँ किसी आगन्तुक-सा
एक बड़े शहर में
एक सौ पच्चीसवीं सड़क पर
कूड़े से उठती
बदबू भरी हवा के बीच

मैं -इस अंतहीन पाठ में एक बड़ा-सा टी - T
जो लोगों के बीच आवारा भटकना
और उन्हीं में
घुलमिल जाना पसन्द करता है!

8 comments:

Ashok Pande said...

एक बहुत बड़े कवि का बढ़िया अनुवाद. शुक्रिया भइये!

siddheshwar singh said...

बहुत उम्दा

समयचक्र said...

बढ़िया कविता का अनुवाद को प्रस्तुत करने के लिए.

अबरार अहमद said...

आपका बहुत बहुत शुक्रिया। एक गैर हिंदीभाषी को हिंदीभाषी बनाने के लिए। बेहद अच्छी रचनाएं। एक बार फिर शुक्रिया।

anurag vats said...

kawi parichit hain...doosri kavita ka anuwaad banispat phle ke acha hua hai...

sanjay patel said...

विश्व का बेहतरीन साहित्य आप के अथक परिश्रम और भावना के ज़रिये हम सब तक पहुँचा...साधुवाद.
कभी कभी लगता कवि का नज़रिया अलग हो सकता
है लेकिन वेदनाओं का स्तर समान ही होता है.
अच्छा अनुवाद इस बात की तसदीक है.

संतराम यादव said...

bahut hi sunder, itna accha sahitya ham sab tak pahunchane ke liye aapko sadhuwad.

अमिताभ मीत said...

वाह ! बहुत बढ़िया. धन्यवाद.