Thursday, July 10, 2008

जुर्त, फुर्त, सुर्त, हाथ का सच्चा, बात का पक्का, लंगोटी का सच्चा यानी "हिरना समझ बूझ बन चरना"

कुमार गन्धर्व जी पर लिखी वसन्त पोतदार की अद्भुत संस्मरणात्मक पुस्तक 'कुमार गन्धर्व' (मेधा बुक्स, वर्ष २००५) को पढ़ना एक अविस्मरणीय अनुभव रहा है मेरे लिए.

किताब के एक हिस्से से कुछ दिलचस्प पंक्तियां आपके लिए:


चण्डालसिंह: हिमालय की गोद में एक देहात में रहनेवाले चण्डालसिंह नामक एक आदमी ने परिपूर्ण और सुलक्षण व्यक्ति की व्याख्या करते हुए मुझ से कहा था - 'जुर्त, फुर्त, सुर्त, हाथ का सच्चा, बात का पक्का, लंगोटी का सच्चा -ऐसा स्वभाव हो तो आदमी सच्चा आदमी.'

कुमार जी को देखते और मिलते हुए मुझे सौ वर्ष के चण्डालसिंह की याद हमेशा आती थी.

जुर्त - यानी हिम्मत -ज़ुर्रत. संगीत क्षेत्र में उनका काम और उनके व्यक्त किये हुए विचार - इनमें कुमार जी का असीम साहस हम आगे चलकर देखेंगे.

फुर्त - यानी चापल्य. संगीत छोड़कर उन्होंने उम्र भर कुछ भी किया नहीं. समय भी नहीं मिला. हां गायकी में उनका चापल्य अतुल था.

सुर्त - यानी अच्छी स्मरणशक्ति. गायक-वाद्कों की स्मरणशक्ति अच्छी होती ही है. कुमार जी अपनी उम्र के बारहवें साल से भारत - भर के गायकों के गीत मास्टर जी के यहां सुनते आए. बाद में अच्छे गुरु भी बहुत मिलेऔर उन्होंने बिना मांगे ही अपनी बंदिशें कुमार जी को दे दीं. उनके पास चीज़ों (रागों और बन्दिशों) का विशाल भंडार था.

हाथ का सच्चा यानी ईमानदार. पैसे के मामलों में ईमानदारी. यहां कुमार जी सौ फ़ीसदी सच्चे थे. पैसे के व्यवहार में इतना सच्चा कलाकार दिखाई देना मुश्किल है.

बात का पक्का यानी अपनी ज़ुबान पालने वाला. मैंने बड़े-बड़े नायक-वादक देखे हैं जो बात के पक्के नहीं हैं. पारिश्रमिक की आधी रकम पहले लेकर भी ऐन वक़्त किसी बहाने से नहीं आए. मगर कुमार जी ने कभी ऐसा नहीं किया. बीमारी के कारण वे कुछ कार्यक्रम नहीं कर सके पर इससे आयोजकों को दुःख नहीं हुआ. कुमार जी को ही हुआ. एक बार बोले -"तीन महीनों से प्रकृति मुझ पर नाराज़ है. मुंबई, कोल्हापुर, दिल्ली वगैरह स्थानों के कार्यक्रम नहीं कर सका. संयोजकों को परेशानी और हमारी बदनामी".

चण्डालसिंह की आख़िरी शर्त 'लंगोटी का सच्चा'. सचमुच बहुत कठिन है. कुमार एक सुदर्शन कलाकार. हमेशा चाहने वालों से घिरा हुआ एक प्रतिभावंत और जनप्रिय गायक. मगर पूरी ज़िन्दगी में कुमार जी के नाम पर एक भी, सीधे-सटक शब्दों में कहा जाए तो, एक भी 'लफ़ड़ा' नहीं. कुमार जी कहते -"मेरी ज़िन्दगी में तीन लड़कियां आईं. दो मराठी और एक दिल्ली की पंजाबी. भानु ने बाज़ी मार ली."

कुमार जी के स्वभाव और व्यक्तित्व की यह थी एक झलक. १९४६ में उनकी गायकी परिवर्तित हुई, स्वतंत्र हुई. उसी प्रकार १९६१ में उनके स्वभाव में भी परिवर्तन आया. वह अस्मिताबिन्दु आखिर तक चमकता रहा. "हम गानेवाले हैं" - यह था वह अस्मिताबिन्दु! उसे ध्यान में रखते हुए ही हमें आगे बढ़ना है. अब बारह वर्षीय कुमार के साथ देवधर गुरुजी के गुरुकुल में चलते हैं ...


प्रस्तुत है कुमार जी की वाणी में कबीर दास जी की रचना. इसे सुनते हुए कई बार ऐसा भी लगता है कि कुमार जी (या कि कबीरदास जी) सुनने वाले को चण्डालसिंह की शर्तों को लगातार याद कराते चल रहे हैं कि "हिरना समझ बूझ बन चरना":


3 comments:

Pratyaksha said...

कुमार गन्धर्व के निर्ग़ुण भजन सुनना माने परम आनंद पाना .. हिरना ..खास प्रिय है

सुजाता said...

इसे सुनना ...गूंगे का फल ....क्या कहें !!आनन्दित !

sanjay patel said...

कुमारजी एक अवधूत गायक थे.उन्होंने शास्त्र की मर्यादा में रहते हुए जो रचनात्मकता दी है संगीत जगत को वह अविस्मरणीय है. मालवा के लोक-संगीत को जगत तक पहुँचाने में कुमारजी ने ख़ास काम किया. शास्त्र में काम करने वाला यदि लोक-संगीत से मुतास्सिर हुआ तो निश्चित ही मानिये कि वह किसी और लोक का वासी था. कुमारजी ने अल्पायु में ही परफ़ार्म करना शुरू किया था. बालक कुमार जब शुरू शुरू के संगीत जल्सों में शिरकत किया करते थे तो तानपूरों से आधे क़द के हुआ करते थे...सोचिये तो ..कब उन्होंने गंडा बंधवाया होगा,कब सीखा होगा और गाने भी लग गए.

प्रश्न यह उठता है कि जब इतनी कच्ची उम्र में कुमारजी ने गाना शुरू किया (संभवत:७ या ८)तो रियाज़ कब किया होगा....छोटे मुँह बड़ी बात कर रहा हूँ...कुमार गंधर्व जैसे गायक ऊपर से ही सारा रियाज़ करके आते हैं जनाब.
ईश्वर उन्हें तैयार कर कहता है जाओ तो कुमार दुनिया को बता आओ मैं कहाँ कहाँ बसता हूँ...तुम्हारा सुर भी तो मेरा आशियाना है.