पीला ताल
आप वहां मछली पकड़ सकते हैं लज्ज़तदार मछली
सजा सकते हैं दस्तरख्वानों पर
लेकिन पीला है ताल, छुपाए अपनी गहराइयां
ताल के किनारे बसे आदिवासी भी
छिपाते हैं अपनी गहराई
क्या पता मछलियां रहती हों उनकी आंखों में
या लज्ज़तदार रूहें गाती हों उबलती नफरत से
अंधेरी हैं गहराइयां उनकी आंखों की कोई नहीं देख सकता
कोई शै रहती है पीले ताल के इर्दगिर्द
जिसका खाका नजर नहीं आता दस्तरख्वान पे।
(अनुवाद-सोमदत्त। पूर्वग्रह-जुलाई-अगस्त१९८८ से साभार)
(पेंटिंग-रवींद्र व्यास)
आप वहां मछली पकड़ सकते हैं लज्ज़तदार मछली
सजा सकते हैं दस्तरख्वानों पर
लेकिन पीला है ताल, छुपाए अपनी गहराइयां
ताल के किनारे बसे आदिवासी भी
छिपाते हैं अपनी गहराई
क्या पता मछलियां रहती हों उनकी आंखों में
या लज्ज़तदार रूहें गाती हों उबलती नफरत से
अंधेरी हैं गहराइयां उनकी आंखों की कोई नहीं देख सकता
कोई शै रहती है पीले ताल के इर्दगिर्द
जिसका खाका नजर नहीं आता दस्तरख्वान पे।
(अनुवाद-सोमदत्त। पूर्वग्रह-जुलाई-अगस्त१९८८ से साभार)
(पेंटिंग-रवींद्र व्यास)
6 comments:
वाह रवीन्द्र जी,
सुन्दर कविता और उस पर विन्सेन्ट वाला बेबाक पीला. बढ़िया संयोजन है.
कबाड़ख़ाने पर नियमित अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते रहने का धन्यवाद!
अशोकजी, गीत के ब्लॉग पर इस कवयित्री की कुछ कविताएं पढ़ी थीं, फिर कुछ दिन बाद याद आया कि इन्हें मैंने पहले भी कहीं पढ़ा है। पुरानी पत्रिकाअों को एक बार फिर टटोला तो पूर्वग्रह का यह अंक हाथ लगा। इसमें सोमदत्तजी द्वारा अनूदित आठ कविताएं हैं। उनमें से पीला ताल ने कहीं भीतर कुछ हलचल मचाई और यह पेंटिंग कर दी।
वाह रवि, निहुर-निहुर कर निहारा है इस ताल को. कविता तो मुझे पसंद है ही, पेंटिंग भी आईला अंट-शंट स्मार्ट है.
Kavita padhwane ka shukriya.
कवि की घुटन,
आंसू से शब्द,
अव्यवस्थित खांचे
गंगा की तरह होते हैं -
मानो तो पावन गंगा,
ना मानो तो -
बस एक नदी !
sundar vichar, khoobshurat abhivyakti.
बहुत बढ़िया प्रस्तुति.
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