Wednesday, September 3, 2008

"ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं .. ..." : नया कबाड़ी

सब से पहले तो सभी काबिल, कामिल कबाड़ियों को प्रणाम. अशोक भाई का बहुत बहुत शुक्रिया ... उन्होंने मुझे "कबाडी" बना दिया. कोशिश करूंगा "कबाड़ी-धर्म" निभा सकूँ.

वैसे मुझे डर भी लगता है ..... यहाँ "कबाड़खाने" में जिस स्तर का कबाड़ इकट्टा हो रहा है उस के साथ मैं इन्साफ कर सकूँगा !!! बहरहाल जब ले ही आए हो अशोक भाई तो झेलो ...... और भी जो लोग झेलेंगे उन से निवेदन है कि "अच्छा-बुरा" जो भी कहना हो, अशोक भाई का ध्यान धर के कहें ......


खैर एक नज़्म पेश है मेरे पसंदीदा शायर "मजाज़" की :

इस नज़्म के कुछ हिस्सों को १९५३ में बनी फ़िल्म ठोकर में इस्तेमाल किया गया था :

"ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं .. ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं ......"

नज़्म के आख़िर में फ़िल्म ठोकर का वो गीत भी पेश है, पहले तलत, और फिर आशा की आवाज़ में ..... (हालांकि आशा जी के गाये version के अंतरे मजाज़ की नज़्म में से नहीं है ..... फ़िल्म में उस गीत के गीतकार का नाम दिखाया गया है "टंडन". संगीत सरदार मालिक का .....

उम्मीद है आप को पसंद आएगी ये नज़्म !

"आवारा"


शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ
गै़र की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

झिलमिलाते कुमकुमों की राह में ज़ंजीर सी
रात के हाथों में दिन की मोहनी तस्वीर सी
मेरे सीने पर मगर चलती हुई शमशीर सी

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

ये रुपहली छाँव ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल
आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

फिर वो टूटा एक तारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में आए ये मोती की लड़ी
हूक-सी सीने में उट्ठी चोट-सी दिल पर पड़ी

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

रात हँस हँस के ये कहती है कि मैखा़ने में चल
फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख़ के काशाने में चल
ये नहीं मुमकि़न तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

हर तरफ़ बिखरी हुई रंगीनियाँ, रानाइयाँ
हर क़दम पर इशरतें लेती हुईं अंगड़ाइयाँ
बढ़ रही हैं गोद फैलाये हुए रुसवाइयाँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

रास्ते में रुक के दम लूँ ये मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाए ये क़िस्मत नहीं

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

मुन्तज़िर है एक तूफान-ए-बला मेरे लिए
अब भी जाने कितने दरवाज़े हैं वा मेरे लिए
पर मुसीबत है मेरा अहद-ए-वफ़ा मेरे लिए

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

जी में आता है कि अब अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ
उन को पा सकता हूँ मैं ये आसरा भी छोड़ दूँ
हाँ मुनासिब है ये ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

इक महल की आड़ में निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला की अमामा जैसे बनिए की किताब
जैसे मुफ़लिस की जवानी, जैसे बेवा का शबाब

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

दिल में इक शोला भड़क उट्ठा है आख़िर क्या करूँ
मेरा पैमाना छलक उट्ठा है आख़िर क्या करूँ
ज़ख्म सीने का महक उट्ठा है आख़िर क्या करूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर हैं नज़र के सामने
सैकडों चंगेज़-ओ-नादिर हैं नज़र के सामने
सैकडों सुलतान जाबर हैं नज़र के सामने

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

लेके इक चंगेज़ के हाथों से खंजर तोड़ दूँ
ताज पर उस के दमकता है जो पत्थर तोड़ दूँ
कोई तोड़े या न तोड़े मैं ही बढ़ कर तोड़ दूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

बढ़ के इस इन्दर-सभा का साज़-ओ-सामाँ फूँक दूँ
इस का गुलशन फूँक दूँ उस का शबिस्तां फूँक दूँ
तख्त-ए-सुल्ताँ क्या मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

जी में आता है ये मुर्दा चाँद तारे नोच लूँ
इस किनारे नोच लूँ और उस किनारे नोच लूँ
एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

"मजाज़"



तलत




आशा

6 comments:

Satish Saxena said...

कबाड़खाने में आने के लिए मुबारकबाद ! अशोक जी ने काफी दिन के बाद एक सही कबाडी पकड़ा है ! मगर यहाँ कई बार एक दूसरे पर अपना अपना कबाड़ फेंका जाता है, और उस समय अशोक जी बचाने नही आते ! सो अपना इंतजाम करके रखें !

Unknown said...

वाह मीत बहुत दिनों बाद मजाज मिले।
शायद आपको पता हो मीत भाई कि लखनऊ में जहां मजाज का इंतकाल हुआ, वहां अब भी एक ठेका है। अगल-बगल कई माल और मल्टीप्लेक्स बन गए हैं। शायर-लेखक वगैरा नहीं लखनऊ की पहचान अब रियलटी शो में भाग लेने वाले बच्चों से होती है और उनके लिए एसएमएस न कर पाने का मलाल को गंभीर सांस्कृतिक विमर्श समझा जाता है।
फिर भी उस ठेके पर एक पेड़ के नीचे छठे-छमाहे कोई न कोई आवारा गाता है जिसके ढेर सारे वर्जन हो चुके हैं। कुछ दिन पहले एक फाइव स्टार होटल में जावेद और शबाना ने मजाज पर सेमिनार किया।
अहमक, मजाज पर कुछ भी होना था तो पहले यहीं होना चाहिए था।- आम प्रतिक्रिया थी।

महेन said...

मीत भाई, यहां भी चालू है? आशा जी वाला वर्ज़न कभी सुना नहीं था।

admin said...

मजाज़ की नज्म को पढवा कर आपने कबाडखाने का नियम तोडा है।
ह-ह-हा।
इस ऐतिहासिक नज्म को पढवाने का शुक्रिया।

किरीट मन्दरियाल said...

बहुत अच्छी नज़्म। मैं भी कबाड़ी बनना चाहता हूं, हालांकि मुझे मेरे हिस्से का कबाड़ इकट्ठा करना है अभी! मेरा ई-मेल - kireetmandriyal@gmail.com

siddheshwar singh said...

स्वागत!
खुश आमदीद!