प्यारे भगत सिंह,
आज तुम्हारा एक सौ एकवां जन्मदिन है। 28 सितंबर 2008, दिन रविवार। ये बात मुझे तब पता चली जब मैं अपनी कुछ पुरानी किताबे कबाड़ी वाले को बेचने जा रहा था। हमने तय किया था कि इस वीकएंड पर पिज्जा खाने के लिए पैसे का इंतजाम पुरानी किताबें बेचकर किया जाए। दरअसल महीने का आखिरी है और मेरे क्रेडिट कार्ड की लिमिट पहले ही पार हो चुकी है। ऐसे में फिजूलखर्ची करना समझदारी नहीं। तमाम किताबें और आल्मारी तो पहले ही बेच चुका, पर पत्नी ने कुछ किताबें फिर भी रख ली थीं। खासतौर पर जिन्हें खरीदने के बाद मैंने दस्तखत करके तारीख डाली थी और उसे उपहार में दिया था। ये शादी के पहले की बात है। लेकिन अब दिल्ली के छोटे से फ्लैट में रहते हुए उसे भी समझ में आ गया है कि किताबें जगह काफी घेरती हैं। बच्चों को सन्डे-सन्डे पिज्जा खिलाने का वादा उसे परेशान कर रहा था। यूं भी किताबों के पहले पन्ने पर किए गए मेरे दस्तखत अब खासे बदरंग हो चुके हैं। इसलिए कबाड़ी बुला लिया था। इसी बीच मुझे तुम्हारी जीवनी दिख गई। बी.ए में खरीदी थी। इसमें तुम्हारे लेख भी थे जो कभी मुझे जबानी याद थे। कबाड़ी को सौंपने के पहले मैंने एक बार कुछ पन्ने उलटे तो कहीं दिख गया कि तुम 28 सितंबर 1907 को पैदा हुए थे।
...कबाड़ी करीब ढाई सौ रुपये देकर जा चुका है। पिज्जा का आर्डर दे दिया है। सोचता हूं कि जब तक पिज्जा आता है, तुम्हें एक पत्र लिख दूं । ताकि तुम्हें मेरा किताब बेचना बुरा न लगे। वैसे भी अब मुझे सारी बातें साफ-साफ बता देनी चाहिए। दुनिया काफी आगे बढ़ गई है। बेहतर हो कि तुम भी किसी भ्रम में न रहो, जैसे मैं नहीं हूं।
...तुम सोच रहे होगे कि सूचना क्रांति के दिनों में तुम्हारे जन्मदिन की जानकारी इतनी छिपी क्यों रह गई। गलती मेरी नहीं है। मैंने सुबह चार-पांच अखबार देखे थे और कई न्यूज चैनल भी सर्फ किए थे। तुम कहीं नहीं थे। हां, लता मंगेशकर के जन्मदिन के बारे में जानकारी जरूर दी गई थी। कहीं-कहीं उनका गया ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’... भी बज रहा था लेकिन तुम्हारी तस्वीर नहीं दिखा...या हो सकता है मेरी नजर न पड़ी हो। वैसे कोई छाप या दिखा भी देता तो क्या फर्क पड़ जाता। तुम्हारे बारे में सोचना तो हमने कब का बंद कर दिया है।
... तुम्हें लगता होगा कि तुमने असेंबली में बम फेंककर बहुत बड़ा तीर मारा था। लेकिन आजकल दिल्ली में आए दिन बम धमाके हो रहे हैं और तमाम बेगुनाह मारे जा रहे हैं। ये सारा काम वे कमउम्र नौजवान कर रहे हैं जिन पर तुम कभी बहुत भरोसा जताते थे। कहते थे कि नौजवानी जीवन का बसंत काल है जिसे देश के काम आना चाहिए। एक ऐसा देश बनाने में जुट जाना चाहिए जहां कोई शोषण न हो, गैरबराबरी न हो, सबको बराबरी मिले...वगैरह-वगैरह। लेकिन फिलहाल इन फिजूल बातों से नौजवान अपने को दूर कर चुके हैं। उनका एक तबका अमेरिका में बसने के लिए मरा जा रहा है, दूसरा ऐसा है जिसकी देशभक्ति सिर्फ क्रिकेट मैच के दौरान जगती है। कुछ ऐसे जिन्हें तुम्हारे हैट से ज्यादा ओसामा बिन लादेन की दाढ़ी अपनी ओर खींच रही है और कुछ इसे हिंदू राष्ट्र बनाने में जुटे हुए हैं। सब एक दूसरे के दुश्मन बन गए हैं और जरा सी बात पर किसी की जान ले लेना उनके बाएं हाथ का खेल बन गया है। तुम अश्फाक उल्लाह खान के साथ मिलकर जो देश बनाना चाहते थे, वो अब सपनों से भी बाहर हो चुका है। बल्कि ऐसी दोस्तियां भी सपना हो रही हैं।
पर तुम इन बातों को कहां समझ पाओगे। तुम तो नास्तिक थे। तुम्हीं ने लिखा था- “मैं नास्तिक क्यों हूं।“… उसमें तुमने ईश्वर को नकारा था। कहा था कि अगर भारत की गुलामी ईश्वार की इच्छा का परिणाम है, अगर करोड़ों लोग शोषण और दमन की चक्की में उसकी वजह से पिस रहे हैं तो वो नीरो है, चंगेज खां है, उसका नाश हो!.....तो सुन लो, न ईश्वर का नाश हुआ, न धर्म का। मुल्ला, पंडित, ज्योतिषी, ई बाबा, ऊ बाबा, अलान बाबा, फलान बाबा सबने मिलकर युद्द छेड़ दिया है। अखबार, न्यूज चैनल, पुलिस, सरकार, सब इस मुहिम में साथ हैं। नौजवानों के बीच तुम कहीं नहीं हो। वे घर से निकलने के पहले न्यूज चैनलों के ज्योतिषियों की राय सुनते हैं। उसी के मुताबिक कपड़ों का रंग और दिशा तय करते हैं। तुम्हारी हस्ती एक तस्वीर से ज्यादा नहीं। उसमें भी घपला हो गया है। तुम लाख नास्तिक रहे हो, लोग तुम्हें सिख बनाने पर उतारू हैं। संसद परिसर में तुम्हारी मूर्ति लगा दी गई है, जिसमें तुम पगड़ी पहने हुए हो। तुम्हारी शक्ल ऐसी बनी है कि तुम्हारे खानदान वाले भी नहीं पहचान पाए। पहचानी गई तो सिर्फ पगड़ी।
और हां, तुम जिस साम्राज्यवाद से सबसे ज्यादा परेशान रहते थे, वो उतना बुरा भी नहीं निकला। तुम तो कहते थे कि विश्वबंधुत्व तभी कायम हो सकता है जब साम्राज्यवाद का नाश हो और साम्यवाद की स्थापना हो। लेकिन जिन्हें साम्राज्यवादी कहा जाता था वे तो बड़े शांतिवादी निकले। वे अशांति फैलाने वालों का सफाया करने मे जुटे हैं। अभी हाल में उन्होंने ईराक और अफगानिस्तान को नेस्तनाबूद करके शांति स्थापित कर दी है। उनकी रुचि अब हमपर शासन करने की नहीं है। वे हमसे अच्छा रिश्ता बना रहे हैं। वे हमें तरह-तरह के हथियार, परमाणु बिजली घर अजब-गजब कंप्यूटर और मोबाइल फोन सौंप रहे हैं। यहां तक कि बेचारे साफ पानी और कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलों को भी हिंदुस्तान के गांव-गांव पहुंचाने में जुटे हैं। हम भी उन्हें बड़े भाई जैसा सम्मान दे रहे हैं। बल्कि उनसे बेहतर बातचीत होती रहे, इसके लिए हमने अंग्रेजी को दिल से अपना लिया है। तुम्हारे पंजाब के ही पैदा हुए सरदार मनमोहन सिंह आजकल देश के प्रधानमंत्री हैं। वे बाकायदा लंदन जाकर आभार जता आए हैं कि उन्होंने हमें टेक्नोलाजी दी और अंग्रेजी सिखाई। हम अहसान करने वालों को भूलते नहीं। हम उन्हें अपने खेत सौंपने की भी सोच रहे हैं। वे कहते हैं कि उनके बीज ज्यादा पैदावार देते हैं। थोड़ी गलतफहमी हो गई, इस वजह से कुछ हजार किसानों ने खुदकुशी जरूर कर ली, पर जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा। बड़े भाई ने भरोसा दिलाया है।
...और हां, जिस साम्यवाद की तुम बात करते थे, वो अब किसी की समझ में नहीं आता। हालांकि ऐसी बातें करने वाली कुछ पार्टियां बाकायदा मौजूद हैं। कुछ प्रदेशों में उनका शासन भी है। लेकन फिलहाल वे तुम्हारी तरह किसानों और मजदूरों के चक्कर में नहीं पड़ी हैं। वे एक कार कारखाने के लिए किसानों पर गोली चलाने से नहीं चूकतीं। कुछ ऐसे भी साम्यवादी हैं जो जंगलों में छिपकर क्रांति करने का सपना देख रहे हैं। पर न उन्हें जनता की परवाह है न जनता को उनकी। वैसे जिस रूसी क्रांति और लेनिन का तुम बार-बार जिक्र करते थे, वे अब भूली कहानी बन चुके हैं या फिर इतिहास में दर्ज एक मजाक।
6 जून 1929 को तुमने लियोनार्ड मिडिल्टन की अदालत में बयान दिया था कि “क्रांति से तुम्हारा मतलब है कि अन्याय पर आधारित मौजूदा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन। धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठा रंगरेलियां मना रहा है और करोड़ों शोषित एक खड्ड के कगार पर हैं, इसे बदलना होगा।“… तो समझ लो कि तुम्हारी बात सुनने वाला कोई नहीं है। भारत में जो कुछ हो रहा है वो भी आमूल परिवर्तन ही है।
... अगर तुम फिर से भारत में जन्म लेकर कुछ करने को सोच रहे हो तो भूल जाओ। कवि शैलेंद्र ने बहुत पहले लिखा था कि “भगत सिंह इस बार न लेना काया भरतवासी की, देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की’...तब ये व्यंग्य लगता था। पर अब सचमुच ऐसा होगा। मेरे इलाके के दरोगा देवीदत्त मिश्र इंस्पेक्टर बनना चाहते हैं। एक बड़े एन्काउंटर स्पेशलिस्ट की टीम में हैं। तुम अगर अपने पुराने सिद्धांतों पर अमल करते मिल गए तो गोली मारते देर नहीं लगाएंगे। अब अंगरेजी शासन नहीं है कि नाटक के लिए ही सही, मुकदमा चलाना जरूरी समझा जाए। मिश्रा जी तुम्हें मारकर शर्तिया प्रमोशन पा लेंगे।
इसलिए जहां हो, वहीं बैठे रहो। मुझे भी अब इजाजत दो। दरवाजे की घंटी बज गई है। शायद पिज्जा वाला आ गया है।
तुम्हारा कोई नहीं
पंकज...
14 comments:
बहुत विचारवान और बहुमूल्य पोस्ट है. बहुत सारा कहने का मन है पर वह पंकज की ही कही किसी बात को अन्डरलाइन करने जैसा हो जाएगा.
बहुत बढ़िया पंकज बाबू!
दद्दा, भगत सिंह को अच्छी श्रद्धांजलि दे डाली एक ही पत्र में। कोई बात छूटी नहीं रह गई।
पंकज भाई मैं कुछ उदास सा था। रामनगर में आईसा के कुछ पुराने साथी भगत सिंह की याद में गोष्ठी कर रहे थे और मैं किन्हीं कारणों से वहां नहीं जा पाया। आपकी पोस्ट ने संतोष और दुख का मिला-जुला प्रभाव दिया!
pyare pankaj,
bahut achha likha tumne,tumhari yaad bhi agayee is se.
likhte raho sathi!
आपके लेख में मौजूदा हालात और भगत सिंह के प्रति नई पीढ़ी की सोच- सब कुछ बयॉं हो गया, और कोई दिवस मनाने की अर्थवत्ता भी। हम लोग वाकई न जाने किस दिशा में जा रहे है। बहुत अच्छा लगा आपका ये लेख पढ़कर। शुक्रिया।
बहुत बढिया पोस्ट लिखी है।बिल्कुल सार्थक।
पंकज जी, आपने एक अच्छी पोस्ट लिख डाली एक इंसान पर जो मौत की परवाह नही करता था इस देश को आजाद कराने के लिए।
जब से सुना हैं हमने,
मरने का नाम ज़िन्दगी हैं,
सर पर कफन लपेटे,
क़ातिल को ढूँढते हैं ।
उस इंसान ने आजादी तो दिला दी पर उसका सपना आज भी अधूरा है। और उसकी आत्मा आज भी बैचेन रहती होगी। पर किसे परवाह उसके उस सपने की।
भगत सिंह के नाम पंकज की पाती
हम कितने 'भले' हो गए हैं साथी !
भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की।
पता नहीं क्या तो क्या अरे हां। अब भी सजा मिलेगी फांसी की।
आदरणीय पंकज जी,
भगत सिंह के जन्मदिन के बारे में 29 तारीख.. तड़के साढ़े बारह बजे पता चला..आपके लेख को पढ़ने के बाद.. अभी ऑफिस आया हूं...नाइट शिफ्ट है.. इसलिये ऑफिस से जाने के बाद सिर्फ सोने का काम रहता है..पंकज सर,मैने.. इतिहास में एमए किया है...सीविल सर्विसेज की असफल तैयारियों के दौरान भी इतिहास विषय था..फिर भी भगत सिंह का जन्मदिन याद नहीं..इतना ही नहीं इतिहास का स्टूडेंट होने के साथ-साथ एक एक न्यूज चैनल का आइकार्डधारी पत्रकार भी हूं..फिर भी भगत सिंह याद नहीं..इसीलये बहुत अधिक आत्म-ग्लानि हो रही है...28 तारीख को भगत सिंह पैदा हुए थे ये मुझे याद नहीं रहा..एक जमाने में पता जरूर था...दरअसल मै 28 तारीख की सुबह महरौली धमाके पर एक पैकेज लिखकर..गृहमंत्री की नो रिक्शन वाली बाइट का इस्तेमाल करते हुए..लोगों के खून और धमाके में मारे गये मासूम बच्चे के परिजनों के रोते-बिलखते शॉट लगाकर..उसमें दर्द भरा म्यूजिक लगवाकर एक पैकेज..क्रोमा के साथ बनवाकर चैनल पर चलवाकर..अपनी शिफ्ट करके घर गया था..लगा था कि बड़ा काम किया...भगत सिंह का सपने में भी ध्यान नहीं आया..जरूरत भी महसूस नहीं हुयी..वैसे सुबह एक-दो अखबार... ऑफिस से निकलते हुए सरसरीतौर पर देखे थे..लेकिन शायद भगत सिंह नजर नहीं आये..बम धमाके..परमाणु करर की खबरें तो थी..वैसे भी भगत सिंह क्या करेंगे अखबार के पहले पन्ने..और चैनल के पहले बुलेटिन में...उन्होंने बम..बेहरे अंग्रजों के कान खोलने के लिये फेंका था..उस बम में कैमिकल और मौत की कीलें नहीं थे..खालिस देशप्रेम भरा था..धमाके के बाद वो पल्सर जैसी फास्ट बाइक पर भागे नहीं थे..बल्कि वहीं ख़डे रहे थे...गिरफ्तारी दी थी..लेकिन मेरे मुंह से भगत सिंह की बात करना शोभा नहीं दे रहा है...फूहड़ लग रहा है..आपने लेख लिख दिया..तो याद आ गया..वरना..फिर नाइट शिफ्ट है..हो सकता है आज किसी बॉलीवुड की खबर पर मसालेदार पैकेज लिखने को मिल जाये..भगत सिंह पर लाइन लिखने की कोशिश करना.. उनका..उनका नाम अपनी जुबाने से लेना..उनका अपमान करना ही होगा...लेकिन सर, आपने बहुत अच्छा लिखा..
विपिन देव त्यागी
पाण्डेय जी, कबाड़ख़ाना के जन्मदिन पर बहुत बधाइयाँ। बहुत बार सोचा कि इस कबाड़ में खुद को भी शामिल कर लूँ। पर अवसर ही नहीं मिल पा रहा है। कबाड़ख़ाना इस समय का हिन्दी ब्लागरी का सर्वश्रेष्ठ सामूहिक ब्लाग है। यह ऐसे ही दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करे।
इस का आदर्श वाक्य "इस धरती में हर जीव को अपने हिस्से का भोजन पाने का हक है।" पसंद आया यह मेरे भी आदर्शों के अनुकूल है।
सलाम भगत सिंह,सलाम पंकज,जो सिंह की तरह गरज रहा है,और गरज़ता रहेगा। आप जैसे लोगो की अभी सख्त ज़रुरत है भगत सिंह के देश को।लिखते रहिये,कभी तो जागेंगे लोग्।
aah..
कमाल का रूपक!
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